पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

वौद्ध कहानिय प्राप्त करने की अभिलाषा नहीं-सब कुछ प्राप्त है । इस पृथ्वी-तल पर दाम्पत्य जीवन में यह प्रेम किस महाभाग ने प्राप्त किया ? गौतम ने यशोधरा का प्रांचल खींचकर कहा-गोपा प्रिये ! अब वस करो चंगेरी तो भर चुकी। अब इन पुष्पों को लताओं में इसी तरह विकसित छोड दो। ये कल तक तो खिले रह सकेंगे? देखो जिन डालियों के पुष्प तुम तोड़ चुकी हो वे कितनी अशोभनीय हो गई हैं ? 'होने दो, आर्यपुत्र ! ये कल फिर फूलों से लद जाएंगी। यह तो प्रकृति का स्वभाव है । प्राप व्यर्थ ही इतना विषाद करते है।' 'व्यर्थ ? नहीं प्रिये ! इन कुसुम-लतिकानों के प्रति तुम्हारा आचरण नितान्त निष्ठुर है। अभी प्रातःकाल तो तुम इन्हे अपने हाथों सींच रही थीं- सो क्या इसीलिए?' 'और नहीं तो क्या ? आर्यपुत्र क्या मुझे ऐसी ही निःस्वार्थ समझे बैठे है ?—मैंने सींचा है तो फूल भी चुनूगी। यह तो जगत् की गति ही है । और यह निष्ठुर प्राचरण क्या इतना ही ? अभी तो मैं रुचि से गूंथकर माला बनाऊंगी। ये यूथिका, चम्पा और कुन्द क्या यों ही अस्त-व्यस्त चंगेरी में पड़े रहेंगे, जैसे आर्यपुत्र के विचार पड़े रहते हैं ?' 'उलाहना मत दो प्रिये ? तुम्हें तो उदार होना ही चाहिए। तुम राजनन्दिनी हो, हाय हाय ! क्या तुम इन कोमल पुष्पों को सुई से विद्ध भी करोगी?' 'प्रार्यपुत्र ! देखते रहें, मैं एक-एक को विद्ध करूंगी। मैं राजनन्दिनी हूं, पालन करना, कर ग्रहण करना और दण्ड-भय से शासन और सुव्यवस्था बनाए रखना मेरा कर्तव्य है । जल-सिंचन करके मैंने पालन किया, पुष्पचयन करके कर ग्रहण कर रही हूं, और अव सूची-शस्त्र के बल से सुव्यवस्थित करके माला बनाऊंगी। फिर आर्यपुत्र के वक्षस्थल पर वह सुशोभित होगी। और मेरे परि- श्रम का वेतन मुझे प्राप्त होगा,'-इतना कहकर गोपा हंस पड़ी। महाराजकुमार सिद्धार्थ ने उसे ढ़ता से पकड़कर कहा--पर मैं विद्रोह करूंगा, अब मै तुम्हें अधिक यह कर-शोषण नहीं करने दूंगा, प्रिये ! चाहो तो मुझे दण्ड दो। 'अच्छी वात है ? मैं तुम्हें बांधकर डाले देती हूं।' इतना कहकर गोपा ने अपने दृढ़ भुज-पाश में कुमार को बांध लिया।