बौद्ध कहानिया ४० मै टहलने लगे। उनके विचारों में फिर उत्तेजना उत्पन्न हो गई । वे पुत्र की त्रात को सोचते-लोचते चिन्ता में मग्न हो गए--- ऐं ! यह कैसा सुख, यह कैमा सौभाग्य, जिसमें निद्रा का भी नाश हो गया ? सारा संसार तो सो रहा है । यही तो चिन्तनीय विषय है, जो सुख है, वह भी दुःख का मूल है कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं, जो मानव-जीवन की इस कठिन व्याधि का उपाय जानता हो। राजकुमार एक जामुन के वृक्ष के नीचे बैठकर जीवन, मरण और उत्पत्ति के विचार में मग्न हो गए। उस अभेद्य अन्धकार में मानो उनके दिव्य चक्षु खुल गए। उनसे उन्होने देखा : संसार का सुख दुःखदायी, मृत्यु अनिवार्य और भवितव्य है, पर यह जान- कर भी लोग अज्ञान के अन्धकार में ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं, और सत्य की खोज नहीं करते । कुमार का हृदय अगाध दया से भर गया। हठात् राजकुमार ने देखा, सम्मुख वृक्ष के नीचे एक गम्भीर महापुरुष खडे है । कुमार ने पूछा-तुम कौन हो ? और कहां से आते हो ? 'मैं श्रमण हूं, बुढ़ापे के दुःखों और रोगों की पीड़ा तथा मृत्यु के भय से मैं घर-द्वार का परित्याग करके निकला हूं; मैं मुक्ति का अन्वेपक हूं; क्योंकि संसार के सब पदार्थ नष्ट हो जाते है, केवल सत्य ही सदा साथ रहता है। प्रत्येक वस्तु बदलती रहती है, कोई पदार्थ स्थिर नहीं है। मैं अक्षय आनन्द को चाहता हूँ, मैंने संमार त्याग दिया है। मैं भिक्षा मांगकर खा लेता हूं। मैंने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, मैं अपने उद्देश्य में तत्पर हूं।' 'मैं भी इन्द्रियों के विषयों की निस्सारता को अच्छी तरह समझ गया हूं। मुझे भोग से घृणा हो गई है । मेरा जीवन मुझे शून्य दीखता है। क्या तुम कह सकते हो कि इस प्रशान्त जगत् में कहीं शान्ति मिल सकती है ?' 'जहां उष्णता है वहां शीतलता भी है । पर महान् मुख के लिए महान् परिश्रम भी करना होगा। पापविद्ध व्याकुल प्रात्मा को उस कल्याण-मार्ग का शोध करना चाहिए जो निर्वाण की ओर जाय । निर्वाण-सरोवर में स्नान करने से सारे पाप धुल जाएंगे।' 'प्राह ? तुम्हारा समाचार शुभ है। मेरे पिता और पत्नी मुझे राजकाज मे लगाना चाहते है । वे घराने की कीर्ति के इच्छुक है, वे कहते हैं कि यह समय धर्मजीवी बनने के लिए उपयुक्त नहीं।'
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