४१ 'पाह, यही समय है जव मोह का अन्धकार प्रात्मा पर छाया हुआ है ।' 'महायमण ! धर्मान्वेपण का समय आ गया, मैं उन सब बन्धनों को तोडे डालता हूं जो धर्म-प्राप्ति में वाधक हैं।' राजकुमार ने एक बार उच्च अट्टालिका की ओर देखा । श्रमण ने कहा- कुमार सिद्धार्थ ! तुम्हारी जय हो ! तुम महान् हो ! तुम तथागत हो ! देखो, सत्य को पराकाष्ठा तक पहुंचाना । जिस प्रकार सूर्य सब ऋतुओं में स्थिर होकर अपने नियमित मार्ग पर चलता है, उसी प्रकार तुम भी सत्य-पथ पर अटल रहना। तुम 'बुद्ध' होगे, तुम लक्षावधि मनुष्यों की बुद्धि को शुद्ध करोगे, तुम जगत् के पथ-प्रदर्शक होगे। सिद्धार्थ ने देखा, महापुरुप यह कहते-कहते अन्तर्धान हो गए । वे उठ खडे हुए। उन्होंने कहा-मैने सत्य का साक्षात् कर लिया। मैं अब बन्धनो को तोडगा । मै बुद्ध-पद प्राप्त करूंगा। वे धीरे-धीरे गम्भीर चिन्तन करते हुए अलिन्द की ओर लौटे । माता और पुत्र सुख-नींद में वेसुध सो रहे थे। गोपा के अरुण अघर पर हास्य की रेखा फैल रही थी, और उनके बीच कुन्दकली के समान दांत चमक रहे थे। वह किस सुख-स्वप्न को देख रही है ?-कुमार क्लान्त-भाव से खड़े-खडे यही सोचने लगे। गोपा का एक हाथ शिशु के वक्ष पर था। उस सुगन्धित कक्ष मे शिशु का छोटा किन्तु अतिमनभावन मुख दीप्त हो रहा था। सिद्धार्थ का हृदय भर आया। उन्होंने प्रण किया : मैं संकल्प पर स्थिर रहूंगा। फिर भी उनके नेत्रों से अश्रु-धारा बह चली । वे बोले-"" (वार्ता)और यह शोकावेग कितना दुर्घर्ष है ? इस धारा के वेग को रोकना कितना कठिन है ? कुमार आगे बढ़कर शय्या के पास घुटनों के बल बैठ गए। एक बार उन्होंने शिशु का मुंह चूमने का उपक्रम किया, पर जागने के भय से वे वैसे ही बैठे रहे । गोपा की सुख-निद्रा पर उनकी दृष्टि थी। अश्रु वेग से उमड़ रहे थे। अन्त में उन्होंने हृदय में वह साहस सञ्चित किया जो पृथ्वी पर कभी किसी तरुण ने नहीं किया था। वे धीरे से उठे। उन्होंने दोनों हाथों की मुट्ठी बांधकर आकाश में स्तब्ध तारागणों की ओर देखा, और फिर एक दृष्टि गोपा के स्निग्ध यौवन और शिशु के अज्ञात मोह पर डाली और चल दिए।
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