प्रवुद्ध बुद्ध अपने प्रमुख शिप्यो सहित राजगृह में पधारे थे। भिक्षु जब नगर में निकलते तब लोग कहते-देखें, अव किसकी बारी आती है ! सारिपुत्र और मौद्गलायन, अश्वजित्, प्राचार्य महाकश्यप और उनके भ्राता-~-सभी भगवान बुद्ध के शिष्य हो गए थे। जो प्रख्यात और तत्त्वदर्शी था, राजगृह का वह महाधनपति यशस भी बुद्ध की शरण जा चुका था, और उसके महाधनवान् चारो मित्र, जो काशी में रहते थे, उसके अनुयायी बन चुके थे। मगध के सम्राट् बुद्ध के दर्शन को पधारे। सहलावधि मनुष्य उनके साथ थे। वे लाखों की सम्पदा भेंट को लाए थे। राजा के साथ उसके मभी मन्त्री और सेनानायक थे। उन्होंने देखा : जटिलों के प्राचार्य महाकश्यप के साथ भगवान् बुद्ध बैठे हैं। सम्राट ने चकित होकर सोचा कि शाक्य मुनि ने क्या कश्यप को अपना आध्यात्मिक गुरु माना है या कश्यप गौतम का शिष्य हो गया है? बुद्ध ने सम्राट के संशय को समझाकर कहा-~कश्यप ! तुमने कौनसा ज्ञान प्राप्त किया है, और वह कौनसी बात है जिसने तुमको अग्नि-पूजा और कष्ट- दायक तपश्चर्या छोड़ने के लिए बाध्य किया है ? कश्यप ने कहा-~-अग्नि की उपासना से दुःखों और प्रपञ्चों के चक्र में पड़े रहने के अतिरिक्त और कोई लाभ नहीं हुआ। अब मैंने इसे त्याग दिया है । तपस्याओं और पशु-बलिदानो के स्थान में मैं सर्वोच्च निर्वाण की प्राप्ति के लिए लगा हूं। तव बुद्ध ने अखि उठाकर सम्राट् की ओर देखा और कहा-जो अपने 'अहं' रूप को जानता है, और समझता है कि इन्द्रिया अपने-अपने कार्यो को किस प्रकार करती हैं, वह स्वार्थ और अहंकार के फेर में नहीं पड़ता और अभय शान्ति उपलब्ध करता है। संसार को 'मैं' का ख्याल है। मेरा शरीर, मेरा धन, मेरा नाम, मेरा रूप, मेरा शत्रु, उसने मुझे गाली दी, उसने मुझे धोखा दिया, उसने मुझे बदनाम किया, इत्यादि संकल्प-विकल्प हो समस्त झूठे भयों और दुष्ट भावो के उत्पादक है। कोई कहते हैं कि यह 'मैं' मृत्यु के पश्चात् स्थिर रहता है। कोई कहता है, उसका अन्त हो जाता है परन्तु वे दोनो भूल पर है। इन्द्रियों का पदार्थों के सन्निकर्ष से ज्ञान उत्पन्न होता है । जैसे सूर्य की शक्ति से शीशे में अव्यक्त अग्नि व्यक्त हो जाती है, उसी प्रकार इन्द्रियां और पदार्थो के
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