बौद्ध कहानियां मिलने से स्मृति आदि का क्रमश: विकास होता है और चेतन शक्ति की भिन्न- भिन्न अवस्थानों के बदलने से उस सत्ता का प्रादुर्भाव होता है जिसे 'अहं' कहते है। बीज से अंकुर फूटता है, परन्तु अंकुर से वीज नही फूटता। दोनों एक नहीं हैं। इस प्रकार 'अहं' एक भ्रम है, 'मैं' क्षणिक है। वह क्षण-क्षण में बदलता है। जो इस तत्व को समझेगा वह काम, क्रोध लोभ, मोह को क्षणिक परिणाम समझ, उन्हें दवाने की कोशिश करेगा। स्वार्थ की प्रबल प्रवृत्ति को रोको और फिर तुम मन की उस निश्चय अवस्था को प्राप्त करोगे जो पूर्ण शान्ति, परम पुरुषार्थ, और सत्य ज्ञान की दात्री है । -माता जिस प्रकार बच्चे के लिए प्रतिक्षण प्रात्मबलिदान करती है, उसी प्रकार सत्य-ज्ञाता विवेकी को शुद्ध हृदय से परहित की सदा कामना करनी चाहिए। यह भावना जितनी प्रौढ़ होगी उतना ही निर्वाण-पद निकट होगा। यही बौद्ध धर्म है। बुद्ध जब उपदेश देकर शान्त हुए तब सम्राट् ने नतमस्तक होकर कहा--- भगवन् ! जब मैं राजकुमार था तब पांच भावनाएं मेरे मन में थीं : (१) मैं राजा होऊ, वह पूरी हुई; (२) पवित्रात्मा बुद्ध मेरे ही शासन काल में मेरे राज्य में पधारें, वह भी पूरी हुई: (३) मैं उनकी सेवा में उपस्थित होकर उनका सत्कार करूं, यह भी पूर्ण हुई; (४) मैं भगवान् का पवित्र उपदेश सुनूं, यह भी पूरी हुई; (५) मैं भगवान् के धर्म को समझ सकू, वह भी पूर्ण हुई। प्रभो ! आपका सत्य महान् है । आप उस बात को स्थापित करते हैं जो अब तक अस्त- व्यस्त रही है। आपने उसे व्यक्त किया जो अब तक अव्यक्त था। आपने उन्हें मार्ग बनाया जो अब तक भटके थे। आप अन्धकार में पड़े हुओं के लिए दीपक जलाते है ! आज मैं बुद्ध की शरण लेता हूं; संघ की शरण लेता हूं; धर्म की शरण लेता हूं। बुद्ध ने कृपा-दृष्टि से सम्राट् को देखा और समस्त उपस्थित मण्डल बुद्ध- धर्म में दीक्षित हो गया। कपिलवस्तु में उल्लास था। पिता का प्रातिथ्य स्वीकार करने भगवान बुद्ध ७ वर्ष वाद लौटे हैं। महाराज शुद्धोदन अपने मन्त्रिगण-सहित स्वागत को पाए। वे अपने पुत्र के तेज और सौन्दर्य को दूर से देख गद्गद हो गए। उन्होंने मन
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