पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/५८

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बौद्ध कहानियाँ २४ स्वामी की भांति भविष्य की चिंता में मग्न थे। इसके सिवा उस अचल एकनिष्ठ व्यक्ति के साय वातचीत करना सरल न था। अन्ततः पीछे का भु-भाग शीघ्र ही गम्भीर अन्धकार में छिप गया। कुमारी मघमित्रा ने एक लम्बी सांस खींचकर उधर से आंखें फेर ली। एक बार बहन- भाई दोनों की दृष्टि मिली। इसके बाद महाकुमार ने उसकी ओर से दृष्टि फेर ली। एक व्यक्ति ने विनम्र स्वर में कहा गमिन् ! क्या आप बहुत ही शोका- टुर हैं ? दूसरा व्यक्ति बीच में ही बोल उठा--- 'क्यों नहीं, हम अपने पीछे जिन वनस्थली और दृश्यों को छोड़ आए है, अब उन्हे फिर देखने की इस जीवन में क्या आशा है ? और, अब अाज जिन मनुष्यों से मिलने को हम जा रहे है उनका हमे कुछ भी परिचय नहीं है । उनमे कौन हमारा सगा है ? केवल अन्तरात्मा की एक बलवती आवाज़ से प्रेरित होकर हम वहां जा रहे है। प्राचार्य की प्राज्ञा के विरुद्ध हममें कौन निषेध कर सकता था। एक और व्यक्ति बोल उठा । उसकी आंखें चमकीली और चेहरा भरा हुआ एव सुन्दर था। उसने कहा-जब तुम इस प्रकार खिन्न हो तब वहां चल ही क्यो रहे हो ? अब भी लौटने का समय है । वह मुस्कराया । महाकुमार महेन्द्र ने मुस्कराकर मधुर स्वर से कहा-भाइयो ! जब मैंने इस यात्रा का संकल्प क्यिा था, तब तुमने क्यो मेरे साथ चलने और भले-बुरे में साथ देने का इतना हठ किया था। ऐसी क्या आपत्ति थी ? एक ने धीने स्वर में उत्तर दिया-स्वामिन् ! हम अापको प्यार करते थे। दूसरे ने मन्द हास्य से कहा-वाह ! यह खूब जवाब दिया ! मैं स्वामी को प्यार करता हूं, इसलिए उसकी जो आज्ञा होगी वह मानूगा ; जहां वह लिया जाएगा, वहां जाऊंगा !---फिर गम्भीरतापूर्वक कहा-और मैं समझता हू कि मैं उन अपरिचित मनुष्यों को भी प्यार करता हूं जो इस असीम समुद्र के उस पार रहते हैं। यह कहकर उसने उस अंधकारावृत दक्षिण दिशा की ओर उंगली उठाई, जहा शून्य भय के सिवा कुछ दीखता न था। उसने फिर कहा-~~-जो प्रात्मा के गह्न विषयों से अनभिज्ञ है जो के सिद्धान्तों को नहीं जान पाए हैं जो !