पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/५९

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भिक्षुराज दुख मे मग्न अबोध संसारी है, उन्हें मैं प्यार करता हूं। तथागत की प्राज्ञा है कि उनपर अगाध करुणा करनी चाहिए। मेरा हृदय उनके प्रेम से ओतप्रोत है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि वे हमें बुला रहे हैं, चिरकाल से बुला रहे हैं। आह ! उन्हे हमारी प्रत्यन्त आवश्यकता है । वे भवसागर में डूब रहे हैं, चूकि तथागत की ज्ञान-गरिमा से वे अज्ञात है। हम उन्हें अक्षय प्रकाश दिखाने जा रहे हैं। निस्सन्देह हमें कठिनाइयों और आपत्तियों का सामना करना पड़ेगा। हमारे पास रक्षा की कोई सामग्री नहीं और शस्त्र भी नहीं । फिर भी अहिंमा का महामोहास्त्र तो हमारे हाथ है जो अन्त में सबसे अधिक शक्तिशाली है। यह धीमी और गंभीर आवाज़ उस अन्धकार को भेदन करके सब साथियों के कानो में पड़ी । मानो सुन्दर पर्वत श्रेणियों से टकराकर हठात् उनके कानो मे घुस गई हो । बारहों मनुष्यों मे सन्नाटा छा गया, और सबने सिर झुका लिए । इन शब्दों की चमत्कारिक, मोहनी शक्ति से सभी मोहित हो गए। दो घंटे व्यतीत हो गए। तरणी जल-तरंगों से आन्दोलित होती हुई उडी चली जा रही थी। राजनन्दिनी ने मौन भंग किया। कहा-भाई, क्या मैं अकेली उस द्वीप की समस्त स्त्रियों को श्रेष्ठ धर्म सिखा सकूगी महाराजकुमार ने मृदुल स्वर मे कहा-आर्या संघमित्रा ! यहां तुम्हारा भाई कौन है ? क्या तथागत ने नहीं कहा है कि सभी सद्धर्मी भिक्षु-मात्र हैं । 'फिर भी महाभट्टारकपादीय महाराजकुमार...।' 'भिक्षु न कहीं का महाराज है, न महाराजकुमार ।' 'अच्छा भिक्षु-श्रेष्ठ ! क्या मै वहां की स्त्रियों के उद्धार में अकेली समर्थ होऊंगी?' 'क्या तथागत अकेले न थे ? उन्होंने जंबु-महाद्वीप में कैसी क्रांति कर दी है। 'किन्तु भिक्षुवर ! मैं अवला स्त्री' 'तथागत की ओत-प्रोत आत्मा का क्या तुम्हारे हृदय में वल नहीं ?' संघमित्रा ध्यान-मग्न हो गई। एक मनुष्य बीच में ही बोल उठा-क्या हम लोग तीर के निकट पा गए है ? समुद्र की लहरे चट्टानो से टकरा रही हैं । महाकुमार ने चिन्तित स्वर में कहा-अवश्य ही हम मार्ग भटक गए हैं ?