पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/६९

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भिक्षुराज + पचीस मील तक चारों ओर का प्रदेश तोरण, ध्वजा, पताका और फूल-पत्तो से सजाया गया। इसके बाद शव चंदन की चिता पर रक्खा गया और राजा ने अपने हाथ से उसमें आग लगाई। जव चिता जल चुकी तो राजा ने राख का आधा भाग चैत्य-पर्वत पर, महितेल में ले जाकर गाड़ दिया, और शेष पापा समस्त विहारों और प्रमुख स्थानों में गाड़ने को भेज दिया। इस प्रकार अव से वाइस मौ वर्ष पूर्व वह महापुरुष असाधारण रीति से जन्मा, जिया और मरा । लंका-द्वीप को इस महापुरुष ने जो लाभ प्रदान किया, वह असाधारण था। उसने यहां की भाषा, साहित्य और जीवन में एक नवीन सभ्यता की स्फूति पैदा कर दी थी, और कला-कौशल में उत्क्रांति मचा दी थी। यह सब इस द्वीप के लिए एक चिरस्थायी वरदान था। आज भी वर्ष के प्रत्येक दिन और विशेषकर पौप की पूर्णिमा को अनेको तीर्थयात्री महिलेल पर चढ़ते दिखाई देते हैं, और प्राचीन कथाओं के आधार पर इस महापुरुष से सम्बन्ध रखने वाले प्रत्येक स्थान की यात्रा करके श्रद्धांजलि भेट करते है। जिस स्थान पर महाकुमार का शव-दाह हुआ था, वह स्थान अब भी 'इसी भूमागन' अर्थात् 'पवित्र भूमि' कहाता है, और तब से अब तक उस स्थान के इर्द- गिर्द पचीस मील के घेरे में जो पुरुष मरता है, यहीं अंतिम संस्कार के लिए लाया जाता है। इस राजभिक्षु ने जिन-जिन गुफाओं में निवास किया था, वे सभी महेद्र- गुफा कहाती हैं। अब भी चट्टान में कटी हुई एक छोटी गुफा को 'महेन्द्र की शय्या' के नाम से पुकारते हैं। पहाड़ी के दूसरी ओर ‘महेन्द्र-कुंइ' का भग्नाव- शेष है, जिसे देखकर कहा जा सकता है कि उसपर न जाने कितना बुद्धि-बल और धन खर्च किया गया होगा। क्या भारत के यात्री इस महान् राजभिक्षु की लीला-भूमि को देखने की कभी इच्छा करते हैं ?