६४ बौद्ध कहानिया 4 उसी रात्रि को एक अनुचर ने, जो कुमार के निकट ही सोता था, देखा कि उनका आसन खाली है। वह तत्काल उठकर चिल्लाने लगा-हे प्रभु ! हे प्रभु ! समुद्र की लहरें किनारों पर टकराकर उस पार के मित्रों की प्रानन्द-ध्वनि ला रही थीं। अनुचर ने देखा, महाकुमार भिक्षुराज बोधि-वृक्ष को प्रालिंगन किए पड़े हैं। उनके नेत्र मुद्रित हैं। अनुचर लपककर चरणों में लोट गया । लोग जाग गए और वहीं को भा रहे थे। इस भीड़ को देखकर कुमार मुस्कराए, सबको आशीर्वाद देने को उन्होंने हाथ उठाया, पर वह दुर्वलता के कारण गिर गया। धीरे-धीरे उनका शरीर भी गिर गया । अनुचर ने उठाकर देखा तो वह शरीर निर्जीव था। उस स्निग्ध चंद्रमा की चांदनी में, उस पवित्र बोधि-वृक्ष के नीचे वह त्यागी राजपुत्र, 'ससागरा पृथ्वी का एक मात्र उत्तराधिकारी धरती पर निश्चित होकर अटूट सुख-नीद सो रहा था, और भक्तों में जो-जो सुनते थे, एकत्र होते जाते थे, और चार आंसू बहाते थे। 1 वह आश्विन मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी थी, जब भिक्षुराज महेद्र ने जीवन समाप्त किया। उस समय यह महापुरुष अपने भिक्षु-जीवन का साठवां वर्ष मना रहा था, उसकी आयु अस्ती वर्ष की थी। उसने अड़तालीस वर्ष तक लंका में बौद्ध धर्म का प्रचार किया । उस समय महाराज तिष्य को मरे पाउ वर्ष बीत चुके थे। उसके छोटे भाई उत्तिय ने, जो अब राजा था, जब इस महापुरुष की मृत्यु का संवाद सुना तो वह बालक की तरह रोता और विलखता हुआ उस पवित्र पुरुष के गुण-गान करता दौड़ा। राजा की आज्ञा से भिक्षुराज का शव सुगन्धित तैल में रखकर एक सुनहरे बक्स में बन्द कर और अनेक सुगंधित मसालों से भर दिया गया । फिर वह एक सुनहरे शकट पर, बड़े जुलूस के साथ, अनुरावापुर लाया गया। समस्त द्वीप के अधिवासियों और सैनिकों ने एकत्र होकर इस महाभिक्षुराज के प्रति अपनी श्रद्धांजलि भेंट की। राजधानी की गलियों से होता हुआ जुलूस अंत में पनहबमाल के विहार मे जाकर रुका, जहाँ वह शव सात दिन रक्खा रहा । राजा की प्राज्ञा से विहार से
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