पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दुखवा मैं कासे कहूं मोरी सजनी "क्यों ? "जहांपनाह का हुक्म ?' 'उसका कुसूर क्या था ? 'मैं अर्ज़ नहीं कर सकती।' 'कैदखाने की चाभी मुझे दे, मैं अभी उसे छुड़ाती हूं।' 'आपको अपने कमरे से बाहर जाने का हुक्म नहीं है।' 'तब क्या मै भी कैद हूं? 'जी हां ।' सलीमा की आंखों में आंसू भर पाए । वह लौटकर मसनद पर गड़ गई, और फूट-फूटकर रोने लगी। कुछ ठहरकर उसने एक खत लिखा- 'हुजूर ! कुसूर माफ फर्मावें । दिन भर थकी होने से ऐसी बेसुध सो गई कि हुजूर के इस्तकबाल में हाज़िर न रह सकी। और मेरी उस लौंडी को भी जा- बख्शी की जाय। उसने हुजूर के दौलतखाने में लौट पाने की इत्तिला मुझे वाजिबी तौर पर न देकर वेशक भारी कुसूर किया है। मगर वह नई, कमसिन, गरीब और दुखिया है। -कनीज़ सलीमा चिट्ठी बादशाह के पास भेज दी गई। बादशाह ने प्रागे होकर कहा-क्या लाई है ? बांदी ने दस्तवस्ता अर्ज की-खुदावन्द ! सलीमा बीबी की अर्जी है। वादशाह ने गुस्से से होंठ चबाकर कहा-उससे कह दे कि मर जाय ! इसके बाद खत में एक ठोकर मारकर उन्होंने उधर से मुंह फेर लिया। बांदी सलिका के पास लौट आई। बादशाह का जबाब सुनकर सलीमा धरती में बैठ गई। उसने बांदी को बाहर जाने का हुक्म दिया, और दरवाजा बद करके फूट-फूटकर रोई । घंटों बीत गए ; दिन छिपने लगा। सलीमा ने कहा-हाय ! बादशाहों की बेगम होना भी क्या बदनसीबी है ! इन्तजारी करते-करते आंखें फूट जाएं, मिन्नतें करते-करते जबान घिस जाए, अदब करते- करते जिस्म टुकड़े-टुकड़े हो जाए, फिर भी इतनी सी बात पर कि मै जरा सो गई, उनके आने पर जग न सकी, इतनी सजा ! इतनी बेइज्जती! तब मैं बेगम क्या हुई ? जीनत और बांदियां सुनेंगी तो क्या कहेंगी? इस बेइज्जती के बाद मुह