पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/८४

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लाला रुख ६१ 1 'क्या वह बहुत खूबसूरत है ?' 'मगर हुजूर के तलुओं योग्य भी नहीं।' लाला रुख मुस्कराई । उसने कहा-किसीको भेजकर उसे कहला दो, जरा नजदीक पाकर गाए। वांदी 'जो हुक्म' कहकर चली गई। और कुछ क्षण बाद ही मूर्तिमती कविता और संगीत की मधुर धार उस भावुक शाहजादी के मानस-सरोवर मे हिलोरें लेने लगी। वह सोचने लगी, जिसका कंठ-स्वर इतना सुन्दर है, और जिसका भाव इतना मधुर है, वह कितना सुन्दर होगा ! शाहजादी की इच्छा उसे एक बार आंख भरकर देख लेने की हुई । शाहजादे ने कहला भेजा था कि उससे पर्दा न किया जाए। परन्तु शाहजादी इतनी हिम्मत न कर सकी। उसने प्रवान दासी के द्वारा कवि से कहला भेजा कि वह नित्य इसी भाति शाहजादी के लिए गाया करे तो शाहजादी उसका एहसान मानेगी। उस दिन से दिन भर शाहजादी उस अमूर्त संगीत के रूप की कल्पना विविध भांति करने लगी, और जब वह स्वर्ण क्षण प्राता तो उस स्वर-सुधा में मस्त हो जाती। कश्मीर धीरे-धीरे निकट पा रहा था। शाहजादे से मिलने का दिन निकट आ रहा था। तमाम कश्मीर में शाहजादी के स्वागत की बड़ी भारी तैयारिया हो रही हैं, इसकी खबर रोज शाहजादी को लग रही थी, पर शाहजादी का दिल धडक रहा था। क्या सचमुच यह अमूर्त संगीत एक दिन विलीन हो जाएगा। धीरे-धीरे शाहजादी के मन में साक्षात् करने की इच्छा बलवती होने लगी। शालामार की सुन्दर और स्वर्गीय छटा अवलोकन करती हुई लाला रुख अनमनी सी बैठी थी। अब वह उस अमूर्त के दर्शन से नेत्रों को धन्य किया चाहती थी। उसने उस स्निग्ध चांदनी के एकान्त में उस कवि को बुला भेजा था। हाथ में वीणा लिए जब उसने घुटने टेककर शाहजादी को अभिवादन किया, तब क्षण भर के लिए शाहजादी स्तंभित रह गई । उसके होंठ कापकर रह गए, बोल म सकी। कवि ने कहा- हुजूर, शाहजादी ने गुलाम को रूबरू होने का हुक्म देकर उसे निहाल कर दिया। 'मैं, मैं तुम्हें बिना देखे न रह सकी ।' 'शाहजादी का क्या हुक्म है ?