पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/८६

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बावचिन अब जिस स्थान पर घण्टाघर है, वहां तब एक बड़ा सा हौज था, जो चादनी चौक की नहर से मिल गया था, और जहां कम्पनी बाग और कमेटी की लाल संगीन इमारत खड़ी है, वहां एक बड़ी भारी किन्तु खस्ताहाल सराय थी, जिसकी बुजियां टूट गई थीं और जहां अनगिनत खच्चर टट्टू, बैलगाड़िया, घोडे और परदेसी बेतरतीबी से पेड़ों के नीचे या बेमरम्मत कोठरियों में भरे हुए थे। , जिस समय पालकी वहां से गुजर रही थी, उस समय हौज़ पर खासा धोवी- घाट लगा हुआ था। कोई नहा रहा था, कोई साबुन से कपड़े धो रहा था। सराय के टूटे किन्तु संगीन फाटक पर देशी-विदेशी प्रादमियों का जमघट लगा था। पालकी अवश्य ही कहीं दूर से आ रही थी। कहार लोग पसीने से लथपथ हो रहे थे। उनका दम फूल रहा था और वे लड़खड़ा रहे थे। पीछे से अफसर तेज़ चलने की ताकीद कर रहा था, मगर ऐसा मालूम होता था कि अब और तेज चलना असम्भव है। कहारों में एक बूढ़ा कहार था । उसका हाल बहुत ही बुरा हो रहा था । कुछ कदम और चलकर वह ठोकर खाकर गिर पड़ा, पालकी रुक गई। तातारी वांदियां झिझककर खड़ी हो गई। अफसर ने घोड़ा बढ़ाया। बूढा अभी संभला न था । एक चाबुक तपाक से उसकी गर्दन और कनपटी की चमड़ी उधेड़ गया। साथ ही बिजली की कड़क की तरह उसके कान में शब्द पडे-उठ, उठ, प्रो दोजख के कुत्ते ! देर हो रही है । कहार ने उठने की चेष्टा की, पर उठ न सका । वह गिर गया। गिरते ही दस-बीस, पच्चीस-पचास चाबुक तडातड़ पड़े, खून का फव्वारा छूटा और कहार का जीवन-प्रदीप बुझ गया !! लाश को पैर की ठोकर से ढकेलकर अफसर ने खूनी आंख भीड़ पर दौड़ाई। एक गठीला गौरवर्ण युवक मैले और फटे वस्त्र पहने भीड़ में सबसे आगे खडा था। मुश्किल से रेखें भीगी होंगी। अफसर ने डपटकर उसे पालकी उठाने का हुक्म दिया । युबक आगे बढा। दूसरे ही क्षण तपाक से एक चाबुक उसकी पीठ पर पड़ा और साथ ही ये शब्द-साला, जल्दी ! युवक ने में कहा-जनाब ! हुक्म वजा लाता हूं, मगर ज़बान क्रुद्ध स्वर