पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/८९

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मुगल कहानिय दो अल्पवयस्का दासियां परछाई की तरह उनके पीछे थीं। शुभ्र, महीन रेशम परिधान पर जरदोज़ी और सलमें का बारीक काम निहायत फसाहत से हो रहा था। वह अस्फुटित कुन्दकली के समान, कोमलता और माधुर्य की मूर्तिमती रेखा के समान समस्त भारत के सम्राट की पौत्री शाहजादी गुलबानू थी। केवल क्षण भर ही वह युवक उस अतिदुर्लभ मुख की प्रोर देखने का साहस कर सका। उसने उठने की चेष्टा की परन्तु मानो उसके शरीर का सत निकल गया था । वह गिर पड़ा, गिरे ही गिरे उसने जरा बढ़कर अपना मस्तक शाहजादी के कदमों पर रख दिया। शाहज़ादी के जूतों में लगे हीरे युवक के मस्तक पर मुकुट की तरह दिप उठे। शाहजादी ने मानो फूल बखेर दिए। उसने कहा-कल के हादिसे का मुझे बहुत रंज है, पर मैं समझती हूं, अब तुम बहुत अच्छे हो। मैंने पालकी से तमाम भाजरा देखा था, मगर कर क्या सकती थी ? दादाजान से आते ही शिकायत कर दी थी। युवक ने जरा ऊंचा उठकर शाहजादी का अांचल आंखों से लगाया और बारम्बार जमीन चूमकर कहा- हुजूर खुदावन्द शाहजादी, कल अगर हुजूर की पालकी की खाक न नसीब होती तो आज यह दिन कहां? जहांपनाह ने इस नाचीज़ गुलाम को निहाल कर दिया। ताबेदार ताउम्र इन कदमों का नमक- हलाल रहेगा। शाहजादी कुछ न कहकर धीरे-धीरे चली गई, परन्तु उसके सांस की सुगन्ध वहां भर गई थी, और उसीके प्रभाव से युवक के घाव भर गए थे । वह उस स्थान को, जहाँ शाहजादी के कमल-पद छू गए थे, अपनी छाती से लगाकर बदहवास पड़ा रहा । उस मूर्ति को चाहे क्षण भर ही वह देख सका था, पर वह उसके रोम-रोम में रम गई थी। पर दुनिया के पर्दे में कौन सा ऐसा कोई मर्द- बच्चा था जो फिर उसे एक बार देख लेने का हौसला भी कर सकता ? १२ साल बीत गए। सन् ५७ की २४वीं मई थी। गदर की प्राग धू-धू करके जल रही थी। चिनगारियां पासमान को छू चुकी थीं। निकल्सन ने दिल्ली पर घेरा डाल रक्खा था ! भाग्य की रेखा के बल पर बूढ़े और लाचार बादशाह बहादुरशाह ने बागियों का साथ दिया था। क्षण-क्षण में बागी हार रहे थे।