पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बावचिन ६१ फ़्तार करके रंगून भेज दिया। तीन वर्ष व्यतीत हो गए। दिल्ली में अंगरेजी यमल जमकर बैट गया था। लालकिले पर यूनियन जैक फहरा रहा था। फासियों की विभीषिकाओं ने नगर और ग्राम की जनता के मन में दहल उत्पन्न कर दी थी। भेड़ की तरह दब्बू चुपचाप अंगरेजों के विधान को अटल प्रारब्ध की तरह देख और सह रहे थे। इलाहीवस्श के पास बादशाही बख्शीश ही बहुत थी, अब अंगरेजी जागीरों और मेहरबानियो ने उन्हें आधी दिल्ली का मालिक बना दिया था। सरकारी नीलाम में मुहल्ले के मुहल्ले उन्होने कौडियों में पाए थे। उनकी बड़ी भारी अट्टा- लिका खड़ी मनुप्य के भाग्य पर हंस रही थी। सन्ध्या का समय था। अपनी हवेली के विशाल प्रांगण में तख्त के ऊपर बढ़िया ईरानी कालीन पर मसनद के सहारे इलाहीवरश बैठे अम्बरी तमाखू पी रहे थे, दो-चार मुसाहिब सामने अदब से बैठे जी-हजूरी कर रहे थे। मियां जी को, मालूम होता है, बचपन के दिन भूल गए थे । वे बहुत बढ़िया अतलस के अंगरखे पर कमखाब की नीमास्तीन पहने थे। धीरे-धीरे अन्धकार के पर्दे को चीरती हुई एक मूर्ति अग्रसर हुई। लोगों ने देखा, एक स्त्री-मूर्ति मैला और फटा हुआ बुर्का पहने पा रही है। लोगों ने रोका, मगर उसने सुना नही । वह चुपचाप मियां इलाहीवदा के सन्मुख पा खड़ी हुई। मियां ने पुथा-क्या चाहती हो? ... 'कौन हो ?' 'आफत की मारी' 'अकेली हो ? 'विलकुल अकेली!' 'कुछ काम करना जानती हो ?' 'बावर्ची का काम सोख लिया है !' 'तनखाह क्या लोगी?' 'एक टुकड़ा रोटी" बहुत महीन, दर्द भरी, कम्पित भावाज़ में इन जबाबों को सुनकर मियां