पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/९३

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मुगल कहानियां इलाहीबख्श सोच में पड़ गए। थोड़ी देर बाद उन्होंने नौकर को बुलाकर उस स्त्री को भीतर भिजवा दिया। उस दिन उसीको खाना बनाने का हुक्म हुआ। मियां इलाहीबख्श दस्तरखान पर बैठे। दोस्त-अहबाबा का पूरा जमघट था। तब तक दिल्ली में बिजली तारों से नहीं बांधी गई थी। सुगन्धित मोम- बत्तियां शमादानों में जल रही थीं। खाना खाने से सभी खुश हुए। नई बावचिन की तारीफ के पुल बाधने लगे। दोस्तों ने कहा-जरा उसे बुलाइए और इनाम दीजिए। इलाहीवख्श ने बावचिन को बुला भेजा। उसने कहा-आका से दस्त-बदस्ता अर्ज़ है कि मैं गैर मर्दो के सामने बेपर्दा नहीं हो सकती। हां, आका से पर्दा ५ जूल है ! दोस्त लोग मन मारकर रह गए। मगर इलाहीबख्श के मन में प्रति- क्षण बाचिन को देखने की बेचैनी बढ़ चली। एकान्त होने पर उन्होंने उसे बुला भेजा । वावचिन ने जवाब दिया-मेरे मिहरबान मालिक ! सफर, मिहनत और भूख से बेदम तथा कपड़ों से गलीज हूं-खिदमत में हाजिर होने के काबिल नहीं। इलाहीबख्श स्वयं भीतर गए और बावचिन के सामने जा खड़े हुए। बोले- क्या मैं तुम्हारी मुसीबत की दास्तान सुन सकता हूं ? यह तो मैं समझ गया कि तुम शरीफ खानदान की दुखियारी हो । बावर्चिन ने अच्छी तरह अपना बुर्का प्रोढ़कर कहा-मालिक ! मेरा कोई दास्तान ही नहीं ! 'क्या मुझसे पर्दा रक्खोगी?' 'यह मुमकिन नहीं है ! 'तब ?' 'क्या आप मुझे देखना चाहते हैं ?' 'जरूर, जरूर !' वह मैला और फटा बुर्का चम्पे की सी उंगलियों ने हटाकर नीचे गिरा दिया। एक पीली किन्तु अभूतपूर्व मूर्ति, जिसके नेत्रों में पानी और होठों में रस था, सामने दीख पड़ी। इलाहीबख्श ने आंखों की धुन्ध प्रांखों से पोंछकर जरा आगे बढ़कर कहा- तुम्हे, भापको मैंने कहीं देखा है !