पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/९९

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एतिहासिक कहानिय, था। संभवतः जयसिंह सिद्धराज ने उसे मालवजय के साथ ही विजय किया था। ६५ वर्ष की आयु में कुमारपाल ने मेदपाट के सीसोदियों से लड़की मागी और मेदपाट के राजा को अपनी पुत्री बूढ़े कुमारपाल को देना स्वीकार करना पड़ा। घमण्डी गुर्जरेश्वर सीसोदिनी को व्याहने चित्रकूट नहीं गया। उसने अपना खांडा देकर जयदेव भाट को भेज दिया और आदेश दिया कि खांडे से ही सीसोदिनी रानी का व्याहकर डोला पाटन लाया जाए। सिसोदिनी कुमारी का नाम चन्द्रकला था। सीसोदियों का इष्टदेव श्री एक- लिङ्ग था। कुमारी ने सुन रखा था कि गुजरात का राजा जैनधर्मी है, और कोई रानी उस समय तक पाटन के चन्द्रमहल में प्रविष्ट नहीं हो सकती जब तक कि वह उपाश्रय में जाकर गुरु की चरण-वन्दना न कर ले । सीसोदिनी राज- कुमारी हठ ठान बैठी कि प्राण चले जाएं तो अच्छा, परन्तु मैं जैन उपाश्रय मे नहीं जाऊंगी और जैन गुरु की चरण-वन्दना नहीं करूंगी। कुमारी के माता-पिता ने बहुत समझाया, अपनी विवशता प्रकट की। पर कुमारी ने अपनी हठ नहीं छोड़ी। उसने जयदेव के आमने-सामने बात की। रानी ने कहा- 'मैं जैन उपाश्रय में नहीं जाऊंगी तथा जैन गुरु की चरण-वन्दना नहीं करूंगी।' भाट ने कहा-आपको न जैन दीक्षा लेनी होगी, न जैन उपाश्रय में जाना होगा, न जैन गुरु की वन्दना करनी होगी। 'करनी पड़ी तो?' 'तो पहले भाट का सिर कटेगा-पीछे और बात ।' भाट से वचन लेकर सिसोदिनी रानी महल में बैठी । परन्तु पाटन में आकर उसे जैन उपाश्रय में जाकर गुरु की चरण-वन्दना करने का आदेश दिया गया । रानी ने एकदम इन्कार कर दिया। राजा भी हठ पकड़ गया। उसने कहा- 'तुम्हें अवश्य उपाश्रय में जाकर प्राचार्य की चरण-बन्दना करनी पड़ेगी।' रानी ने कहा--राजा मुझे अमान्य कर दें, सूली चढ़ा दें, सिर काट लें, वह स्वीकार, पर जैन उपाश्रय में जाकर जैन गुरु की वन्दना करना मुझे