पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/९८

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भाटका वचन गुजरात की राजधानी पाटन सम्पूर्ण भारत में विद्या का केन्द्र हो गई। जैन ग्रन्थकारों ने कुमारपाल पर बहुत ग्रन्थ रचे । उन्होंने अपनी प्रशस्तियों से कुमारपाल का यश दिग्दिगान्त में फैला दिया। परन्तु राजा पर जेना का यह प्रभाव और पाटन में उनकी सत्ता का प्रमुख उसके भाई-बन्दों को रचा नहीं । उन्होने उनके तथा राजा के विरुद्ध बड़ा भारी षड्यात्र संगठित कर डाला और बह विद्रोह के रूप में फूट निकला। एक वात और थी। पाटन के सोलंकी राजा शेव थे, परन्तु प्रधानमन्त्री परम्परा से जैन होते पा रहे थे। कुमारपाल का प्रधानमन्त्री उदय महता था। वह बड़ा भारी राजनीति का पण्डित और अर्थशास्त्री था । बहुत बार उसने भाडे समय में पाटन की प्रतिष्ठा बचाई थी। इस प्रकार इधर जन गुरुरि उधर जैन मन्त्री इन दोनों प्रबल पुरुषों के सहयोग से पाटन सोलकियों का नहीं, जैनों का ही राज्य प्रतीत होता था। फिर पाटन में जैन सेठों के भी बहुत घराने थे। उनके लाखों-करोड़ों के कारबार संसार के देश-देश में फैले थे। वे सब करोड़ पति अरवाधिपति सेठ जैन ही थे । राजा जैनों के प्रभाव में था । अपने गुरु के विपरीत वह कुछ नहीं सुनना चाहता था। राज्यसूत्र जैन मन्त्री के हाथ में था-व्यापार में भी उन्हीका बोलबाला था। परन्तु घर-बाहर सर्वत्र जैनों के प्रति विरोध फूटा पड़ रहा था। परन्तु कुमारपाल बड़ा तेजस्वी राजा था । अपने जीवन की कठिनाइयों को झेलकर वह ढीठ और बहुदर्शी बन गया था। उसने अपने बहनोई सांभरपति अर्णोराज को, अपनी बहिन से एक अपशब्द कहने के अपराध मे, भरे दरबार में जीभ काट लेने का आदेश दिया था। विवेरा के राजा को कुमारपाल ने एक अनुरोध पत्र लिखकर कुछ रेशमी दुपट्टे मंगाए थे। इसपर वहां के राजा ने कुमारपाल की कुछ दिल्लगी उड़ाई थी। इसीपर कुमारपाल ने उसपर सात सौ सामंत और बीस हजार सेना समेत मालव-राजकुमार वाहन को भेजा । उसने राजा को युद्ध में मार एक लाख रेशमी दुपट्टे और सात सौ दुपट्टे बनाने वाले कारीगर कुमारपाल की सेवा में ला उपस्थित किए। ऐसा ही वह काल था। उसमें "जिसकी लाठी उसकी मैस' की कहावत ठीक उतरती थी। उन दिनों मेदपाय चित्रकूट (मेवाड़-चित्तौड़) गुजरात के अधीन करद राज्य