(अक्तूबर २२, १९१९ )
हाईकोर्ट ने सत्याग्रही वकीलों के अभियोग का फैसला सुना दिया। फैसला नितान्त असन्तोषजनक है। हाईकोर्ट ने मूल विषय को अलग रख दिया है। तर्क यही कहता है कि मुकदमा स्थगित करना उचित नहीं था, उचित तो फैसला ही कर देना था। सत्याग्रही वकीलों ने किसी तरह का पाश्चात्ताप नहीं प्रगट किया। आवश्यकता पड़ने पर वे सविनय अवज्ञा के लिये अब भी तैयार हैं। जब अभियोग चलाया गया तो वकीलोंने क्षमादान न चाहकर विचार और निर्णय चाहा। हाईकोर्ट ने उनकी स्थिति सन्दिग्ध रख दी।
विद्वान जजों ने कानूनी आचरण की जो मीमांसा की है वह हम लोगों के मतसे विवादग्रस्त है। जजों ने फैसले में लिखा है——“जो कानूनके द्वारा जीविका कमाते हैं उन्हें कानूनकी मर्यादाका पालन करना चाहिये।" हमारी समझ में नहीं आया कि जजों का
इससे क्या अभिप्राय है? यदि जजों का यह अभिप्राय है कि किसी भी अवस्था में वकीलों को सविनय अवज्ञा नहीं करनी चाहिये नहीं तो उन्हें अदालत की अप्रसन्नता का कारण होना पड़ेगा तो हमें बाध्य होकर कहना पड़ेगा कि यह एकदम
८