प्रबन्धका अधिकार भारतीयों को दिया। यह कोई नई बात नहीं थी और न लार्ड रिपन ने इसे अपने मनसे निकाला ही था। उन्होंने देखा कि प्राचीन पञ्चायत की व्यवस्था बड़ी ही अच्छी थी। प्रजा उसमें सन्तुष्ट थी यदि आज भी उसी तरहकी कोई व्यवस्था कर दी जाय तो लोगों में सन्तोष बढ़ जायगा। पर इसका भी कोई अच्छा फल नहीं निकला। लार्ड रिपन के बाद जो शासक आये उन्होंने उसको उतना हो संकुचित कर दिया जितना संकुचित नौकरशाहो के हाथ में कोई भी शासन रह सकता है। हां इन मुनिसिपल तथा जिला बोर्डों को यह फायदा अवश्य हुआ कि जिलाधीशोंके काममें कुछ सुविधा हो गई। अंग्रेज लेखकोंने लिखा है :-“भारतमें दो सौसे भी अधिक बोडे हैं और प्रायः सात सौ मुनिसिप. लिटियां हैं। पर प्राचीन समयकी पञ्चायत व्यवस्थासे इनका मुकाबिला करने पर इनकी निःसारता स्पष्ट हो जाती है।"
इस प्रकार लार्ड रिपनकी सदिच्छा सिविल सर्विस के
कर्मचारियोंकी कूर नीतिके कारण चरितार्थ न हो सकी।
अंग्रेजा कोप ।
ब्रिटिश शासनमें एक बुराई यह थी जो अबतक चली
आ रही है कि अंग्रेजोंका विचार साधारण अदालत में और
भारतीयों द्वारा नहीं हो सकता था। इस भेद भावको मिटानेके
लिये लाई रिपनने एक बिल उपखित कराया। उस समय