आंचके लिये पाठकोंको उस फैसलेको पढ़ जाना चाहिये। पर
जमायतसिंहके पुत्र परसोतमसिंहने उस मुकदमेंके सम्बन्धमें
मेरे पास जो कुछ लिखकर भेजा है उसे पढ़कर तो इस फेस-
लेकी बेइमानी और भी कालिमामय हो जाती है। क्या यह
बात सच है कि विना किसी सूचनाके मजिस्ट्रटने अभियुक्त-
को संपत्ति जब्त कर लो, घरमें रहनेवालोंको हर तरहसे सताया
गया उनकी घोर बेईजती की गई ? यदि ये बात सच हैं तो
क्या इसे न्यायका गला घोटना नहीं कह सकते ? क्या यह
बात सच है कि सफाईके जिन गवाहोंका अभियुक्तने नाम दिया
था उनके पास हाजिर होकर बयान देनेके लिये समन तक नहीं
भेजा गया और जिस समय अभियुक्त पर दोषारोपण किया गया
उस समय उसके वकील भी इजलासमें नहीं रहने पाये ? अब
आप ही समझ लोजिये कि इस तरहके फैसलेका क्या मूल्य
होगा?
फैसलेके पहले तथा बाद अभियुक्त के साथ जिस तरहका
व्यवहार किया गया वह भी उस न्यायप्रिय (?) अदालतके सर्वथा
अनुरूप था। अभियुक्तके हाथमें हथकड़ियां भर दी जाती थीं
और अपना विस्तर बगलमें दबाकर उसे पैदल आना जाना पड़ता
था। क्या यह व्यवहार पशुवत् नहीं था? इसे पढ़कर जेनरल
हामनके भाषणका स्मरण आ जाता है जो उन्होंने हाथ और
पैरके बल चलनेकी आज्ञाके सम्बन्धमें कहा था। सारी घटनासे
यही प्रगट होता है कि अधिकारियोंका इस तरहका आचरण,
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