आम तौरपर लोगों का ख्याल है कि धर्म तो केवल कमजोर लोगोंके लिये है। अधिकसे अधिक उसका काम एक व्यक्ति और दूसरे व्यक्ति के बीच पड़ता हो। पर राज्य और सम्राट तो धर्मातीत हैं। वे जो करें वही धर्म है। साम्राज्य-शक्ति धर्मसे परे है। व्यक्तियोंका पुण्य क्षीण हो सकता है, पर साम्राज्य तो अलौकिक वस्तु है। ईश्वरकी विभूतिसे साम्राज्यकी शक्ति श्रेष्ठतर है। साम्राज्य जब विजयकी पताका लेकर घूमता है तब ईश्वर दिनके चन्द्रमा की तरह न जाने कहां छिप जाता है।
मथुरामें कसकी यहो भावना थी। मगध देशमें जरासंध भी
यही सोचता था। चेदिराज शिशुपालको भी यही मनोदशा थी।
जलाशयमें रहनेवाला कालिय नाग भी यही मानता था। द्वारका
पर चढ़ाई करनेवाले कालयवनका भी विश्वास इसी सिद्धान्तपर
था। महापापी नरकासुरको भी इसके सिवा दूसरा कुछ न
सुझाई देता था । और देहलीका कौरवेश्वर भी इसी धुनमें मस्त
था। ये सब पराक्रमी राजा अंधे अथवा अज्ञान न थे। इनके
दरबारमें इतिहासवेत्ता, अर्थशास्त्र विशारद और राज्यकार्य-
धुरन्धर अनेक विद्वान भी थे। वे सब अपने अपने शास्त्रोंका
मनन करके उनका सार अपने अपने सम्राटोंको सुनाते थे। पर
जरासंध कहता---"तुम्हारे इतिहासके सिद्धान्तोंको यों ही रखे