था कि मुसलमानों के धार्मिक क्षेत्रों की रक्षा का पूरा प्रबन्ध किया जायगा। पर इससे यह अभिप्राय कभी भी नहीं निकलता कि जी तुर्क साम्राज्य उच्छृ खलता से आत्मनिर्णय के अधिकार का सदा से दुरुपयोग करता आ रहा है, उसे कायम रखा जायगा। क्या हम लोगों के लिये यह उचित होगा कि हम लोग चुपचाप खड़े होकर तमाशा देखें कि तुर्फ फिर से अरबों को जीतें और उनसे युद्ध करें, क्योंकि अरबवाले इस समय युद्ध किये बिना न रहेंगे। हमें स्मरण रखना होगा कि हमने अरबवालों को भी वचन दे रखा है। क्या ऐसा करना उनके साथ विश्वासघात करना और उन्हें धोखा देना नहीं है ? यह कहना सर्वथा अनुचित है कि
अरबवालों ने यूरोपीय शक्तियों के उभाड़ने से ही तुर्कों से शत्रुता
मोल ली। अरबके लोग बहुत दिनों से तुर्कों के साथ दुश्मनी का
यह भाव रखते आये हैं। हां, युद्ध के समय तुर्कों के विरुद्ध हम
लोगों ने इस दुश्मनी का लाभ अवश्य उठाया है और तुर्को के
मुकाबिले में एक मित्र पैदा कर लिया है। तुर्की के सुलतान की
गैर मुसलमानी प्रजा बहुत पहले से ही इनके शासन से उद्धार चाहती थी। भारत के मुसलमान जिस शासन को दूसरों पर लादना
चाहते हैं, उसकी व्यवस्था का उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं है। सच
बात तो यह है कि सीरिया या अरब में तुर्को का फिर से राज्य
स्थापित करना इतना कठिन और असंभव है कि उसकी चर्चा
करना हो व्यर्थ है। इसकी चर्चा पवित्र रोमन साम्राज्य के
पुनः स्थापना की चर्चा के बराबर होगी। मेरी विचार-धारा के
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खिलाफत