का अधिकार चाहते हैं। दूसरे शब्दोंमें मिस्टर लायड जार्जने
भारतीय मुसलमानोंको जो वचन दिया था और जिसके वशीभूत
होकर उन्होंने मित्र राष्ट्रोंकी विजयके लिये अपना रक्त बहाया था,
उससे अधिक वे और कुछ नहीं चाहते । उपरोक्त पत्रके लेखकने
अपनी दलीलों और युक्तियोंका सारा आधार उन बातोंको बना
रखा है जिनका कही नामनिशान और पता नहीं है। इसलिये
उनकी सारी धारणायें और विवेचनायें निर्मूल होकर धराशायी
हो जाती है । मैंने तन, मनसे इस प्रश्नको इसलिये उठा लिया
है कि ब्रिटनके वचन, केवलमात्र ईमानदारी तथा धार्मिक भाव,
ये तीनों इसके पक्षमें हैं। मुझे इतनी बुद्धि है कि मैं भलीभांति
समझ लूं कि न्यायपूर्ण मांग क्या है और अन्य धार्मिक प्रेरणा
क्या है। उस अवस्थामे मैं सदा न्यायका पक्ष लेकर मूढ़ व
धार्मिक अन्धविश्वासका विरोध करूगा । और यदि अनुचित मत-
के प्रतिपादनके लिये किसीने बदनियतीसे कोई वचन दे दिया
है तो मैं उसके पाले जानेके लिये भी ओर नहीं दे सकता । जिस
जातिको अपनी सच्चरित्रता और न्यायप्रियताका अभिमान है
उसके लिये प्रतिरोध केवल संगत ही नहीं बल्कि आवश्यक और
करणीय हो जाता है।
उपरोक्त पत्रके लेखकने अपने पत्रमें लिखा है:-"यदि भारत
आज स्वतन्त्र शक्ति होता तो वह ऐसी अवस्थामें क्या करता ?"
इस अवस्थाके विषयमें अपनी ओरसे कुछ लिखना व्यर्थ है क्योंकि
भारतीय मुसलमान अर्थात् भारतके लोग उस मन्तव्यके लिये