यही चाह रहे हैं कि मैं सर्व व्यापी असहयोग तत्काल आरम्भ कर दूं। दूसरे मेरी भूल दिखलाते हुए कहते हैं कि मैं जान बूझकर देश को जलती आग में झोंक रहा हूं और अशान्ति का बीज बो रहा हूं। इन सबका विस्तृत उत्तर देना कठिन है। पर मैं संक्षेप में यथासम्भव प्रत्येक का उत्तर दूंगा। कुछ प्रश्नों का
उत्तर तो मैं पिछले लेख में दे चुका हूं। उनके अतिरिक्त निम्नलिखित आक्षेप किये जा रहे हैं:---
(१) तुर्को की मांगे अनुचित और अन्यायपूर्ण हैं। सत्य के मार्ग का अनुसरण करनेवाला मुझसा व्यक्ति क्यों उसका समर्थन कर रहा है?
(२) यदि थोड़ी देर के लिये मान लिया जाय कि उनकी मांगे सङ्गत और न्यायपूर्ण हैं तोभी तुर्क लोग इतने अयोग्य, कमजोर और नृशंस हैं कि उनकी सहायता नहीं करनी चाहिये।
(३) यदि थोड़ी देर के लिये मान लें कि तुर्को की मांगें न्यायोचित हैं और उन्हें सब कुछ मिलना चाहिये तो भी व्यर्थ के लिये मैं भारतवर्ष को अन्तर्राष्ट्रीय झंझट में क्यों डाल रहा हूँ?
(४) भारत के मुसलमानों को इस झंझट में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं प्रतीत होती । यदि उनके हृदय में किसी तरह की राजनैतिक आकांक्षा है तो उन्हें स्मरण रखना चाहिये कि उन्होंने उसके लिये प्रयत्न किया, असफल भी हो चुके । अब उन्हें चुप करके बैठ रहना चाहिये। पर यदि धर्म के नाते वे इस प्रश्न को लेकर उठते हैं तो जिस प्रकार उन्होंने उसकी व्यवस्था