हैं और जो लोग सन्धि के शर्तों में न्याय और प्रतिष्ठा देखना चाहते हैं वे इस बात को सहसा भूल जाते हैं। पर इस लेख के लेखक ने पूरी बातें नहीं लिखी हैं। उसकी बातें अधरी रह गई है। यदि उसको हम लोग पूरा कर दें तो उसका अभिप्राय
यह हो जाता है कि हम इसे मानते हैं कि तुर्कों की हार हुई
है सही पर वह हार कहां हुई है ? केवल युद्ध क्षेत्र में ।
विश्वास और भक्ति के मैदान में तुर्क आज भी उसी तरह विजयी
हैं जैसे पहले थे। आज भी समस्त मुसलमान जाति
खलीफा अर्थात् तुर्कों के साथ वही अविच्छिन्न सम्वन्ध रख
रहा है जो पहले था। और युद्धक्षेत्र में भी उसका पराजय
किसके द्वारा हुआ ? उसका पराजय उन्हीं मुसलमानों की शक्यों के आयोजन से किया गया जो सम्राट की रिआया होकर उसके
पक्षमें युद्ध करनेके लिये तैयार हो गये क्योंकि उन्हें पक्का वचन
दिया गया कि इस युद्धसे खिलाफतपर किसी तरहका असर
नहीं पहुंचेगा। और आज जब वह देखते हैं कि उन्हें धोखा
दिया गया, उनके साथ चाल चली गई तो उन्हें क्षोभ होना
स्वाभाविक है। ऐसी अवस्थामें पहुंचकर वह उपवास व्रत
कर रहे हैं, प्रार्थना कर रहे हैं और अब भी आशा बनाये हैं कि
जिस साम्राज्य में हम रहते हैं, उसके द्वारा हमारे धार्मिक
भावोंकी रक्षा की जायगी। अस्तु, ये बातें जो कुछ भी हों,
क्या उस जातिके लिये यह कहना शोभा देता है कि तुर्क विजित
राष्ट्र हैं और उनके साथ वही व्यवहार किया जायगा जो किसी
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खिलाफत की समस्या