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राइम्सका विरोध

निर्णय पर अभीसे असन्तोष प्रगट कर रहे हैं। मुमकिन है कि उन्हें तुर्को का शासन न स्वीकार हो पर वर्तमान अवस्थाको और भी नहीं चाहते। वे लोग तुर्कीके साथ अपना निपटारा कर लिये होते पर उनके साथ जो बन्दोवस्त किया गया है उसमें वे जानते हैं कि आत्म निर्णयके नामपर उनके ऊपर ब्रिटिश सेनाका भार लाद दिया गया है और उसके पैरों तले वे रौंदे जायंगे। ब्रिटिशके लिये सीधा मार्ग खुला था। वह तुर्कों से सुशासनके लिये पूरी जमानत ले लिये होता और उनको जैसाका तैसा रहने देता। पर उसके प्रधान मन्त्रीने गुप्त सन्धि और कुटिल मार्गका अनुसरण ही उचित समझा।

उनके लिये आज भी उपाय है। भारतको बराबरका साथी वे स्वीकार कर लें। मुसलमानोंके सच्चे प्रतिनिधियोंको वे निमन्त्रित करें। उनको अरब आदि प्रदेशोंमें भ्रमण करने दें और उनकी सहकारितामें ऐसा प्रबन्ध करें जिससे तुर्की साम्रा-ज्यकी किसी भी तरहसे अप्रतिष्ठा न हो और तुर्की साम्राज्यके अन्र्तगत जितने भी राज्य हैं सबकी उचित व्यवस्था हो जाय। यदि आज कनाडा, आस्ट्रेलिया या दक्षिणी अफ्रिकाका प्रश्न होता तो मिस्टर लायड जार्जको अवश्य सुनना पड़ता। वे इसको इतनी उपेक्षाकी दृष्टिसे न देखते, क्योंकि उनके (इन उपनिवेशोंके) हाथमें मनाने और मजबूर करनेका बल है। भारतके हाथमें इस तरहका कोई अधिकार नहीं है। पर यदि भारतके हृदयस्थ भावोंका ब्रिटिश साम्राज्यको जरा भी सम्मान नहीं करना है तो व्यर्थका