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मुसलमानोंका निर्णय


हमें पूर्ण विश्वास है कि यदि मुसलमान लोग अपनी प्रतिज्ञा पर डटे रह गये, आत्मसंयम पर चले और बलिदानके लिये तैयार रहे तो हिन्दू लोग अवश्य ही उनका साथ देंगे और असहयोग व्रत धारण करेंगे। मुझे यह भी विदित है कि यदि मुसलमान अपने बल पर या अफगानोंकी सहायतासे अंग्रेजोंके साथ सशस्त्र युद्ध करना चाहेंगे तो वे उनका कभी भी साथ नहीं देंगे। इसके अतिरिक्त सीमा पर ब्रिटिश सेना इतनी सङ्गठित है कि कोई भी विदेशी शक्ति सहजमें भारत पर आक्रमण नहीं कर सकेगी। इसलिये यदि इस्लाम धर्मकी रक्षाके लिये मुसलमानोंके हाथमें कोई भी उपाय शेष रह गया है तो वह असहयोग आन्दोलनको सफल करना है। यदि लोगोंने तत्परताके साथ इसे अपनाया तो यह केवल सार्थक हो नहीं होगा बल्कि व्यक्तिगत उद्बोधन भी इससे अपरिमित होगा। यदि मैं किसी व्यक्ति विशेष या संस्थाके अन्याय- युक्त आचरणको नहीं देख सकता तो मैं उस पापाचरजमें यदि हाथ बटाऊ तो इसके लिये मुझे ईश्वरके सामने जबावदेह होना पड़ेगा। अगर मैंने ऊपर लिखित अन्यायाचरणमें योग नहीं दिया तो मैंने जहांतक संभव था सदाचारकी नीतिके अनुसार ही काम किया। इसलिये इस महान अस्त्रके प्रयोगमें जल्दीबाजी अथवा बदमिजाजीको स्थान नहीं देना चाहिये। असहयोग आन्दोलन हर तरहसे आत्म प्रेरित होना चाहिये। इसलिये समस्त बात मुसलमानोंपर ही निर्भर करती हैं।