इस समय सरकार ऐसे बुरे लोगोंके हाथमें है कि मैं अब
उससे प्रेम बनाये नहीं रख सकता। मुझे तो यह भी अपमान-
जनक मालूम होता है कि मैं स्वतन्त्र पड़ा रहूँ और अन्यायको
देखता रहूँ। मि० माण्टेगूका मुझे यह धमकी देना कि अगर
मैं सरकारके अस्तित्वको दृष्टिसे खतरनाक काम जारी
रखूँगा तो मेरी स्वतन्त्रताका अपहरण कर लिया जायगा, ठीक
ही है : क्योंकि अगर मेरी काशिशें सफल हुई तो उनका परिणाम
सरकारके लिये खतरनाक ही होगा। लेकिन अगर मि०
माण्टेगू मेरी पुरानी सेवाओंको स्वीकार करते हैं तो वह यह
समझ सकते थे कि अगर मुझ जैसा सरकारका हितैषी भी अब
उससे प्रेम नहीं रख सकता तो अवश्य उसमें कोई असाधारण
बुराई होगी। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया-बस इतना ही
मुझे खेद है। उन्होंने मुसलमानों और पंजाबके साथ न्याय
करानेके आसान कामको न करके अन्यायको चिरस्थायी करनेके
लिये मुझे धमकी दी है। मुझे तो इस बातका पूरा विश्वास है
कि अन्यायी सरकारके प्रति अप्रीतिका भाव उत्पन करके में
साम्राज्यकी उतनी सेवा कर सकेंगा जितनी कि मैंने अभी तक
नहीं की है। परन्तु तोभी जो लोग मेरी वर्तमान नीतिका
समर्थन करते हैं उनका कर्तव्य स्पष्ट है। यदि भारत सरकार मेरी
स्वतन्त्रताका अपहरण कर लेना ही अपना कर्तव्य समझाती है
तो मुझे इस बात पर किसी तरह क्रोध नहीं करना चाहिये।
अगर किसी राष्ट्रके कानूनोंके अनुसार उसके किसी नागरिकको
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खिलाफतकी समस्या