सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:याक़ूती तख़्ती.djvu/१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
परिच्छेद]
(१५)
यमज-सहोदरा


और उसे मटियामेट करने के लिये आपलोग जीजान से तुले हुए हैं। लेकिन मैं आपको यकीन दिलाती हूं कि जबतक एक भी अफरीदी जीता रहेगा, अपनी आज़ादी हर्गिज़ क़ाफिरों के हाथ न बचेगा। अगर मौका हो तो आप अपने अफसरों पर यह बात जरूर जाहिर कर दीजिएगा। मैं खयाल करती हूं कि अब शायद आपस मेरी मुलाकात न हो। और यह भी में समझती हूं कि कल सुबह को जब आप यहांल अपने पड़ाव की ओर जायंगे तो मुमकिन है कि अफरीदियों से आपकी मुठभेड़ हो जाय और आप पर कयामत बर्षा हो इसलिये मैं आपको अपनी एक ऐसी निशानी देती हूं कि जिसके सबब से आप मुझे हमेशः याद भी रक्खेंगे और अफ़रीदियों स अपने तईहिफ़ाज़त भी कर सकेंग।"

यह कहकर हमीदा ने अपने गले से उतार कर एक “याकृती तख़्ती" जो कि सोने को जंजीर में लटकती थी और जिस पर फ़ारसी की एक शेर खुदी हुई थी, मेरे गले में डाल दी और मुस्कुराकर कहा,-"आप एक नेक और ज़वांमद शख्स हैं, इसलिये मैं उम्मीद करती हूं कि अपने दुश्मन की भोलीभाली लड़की के इस तोहफ़े के लेने से इनकार न करेंगे, जो कि आपकी सच्ची सिपहगरी का तोहफा कहा जा सकता है।"

मैंने कहा,-"बीबी हमीदा! एक औरत की दीहुई निशानी की अपेक्षा में बिपद में अपनी तल्वारही को विशेष और उपयुक्त समझता हूँ; और ऐसी दशा में, जब कि मैं असभ्य और नीच अफरीदियों की सीमा में घूम रहा हूं।"

यह सुनतेही हमीदा मारे क्रोध के भभक उठी और अपनी आंखों की आग की चिनगारियों से हलाहल उगलती हुई बोली,-- अफ़सोस! तुम बड़ नाकदरे निकले!”

मैंने कहा,-" बीवी हमीदा! मैं तुम्हारे मन में कष्ट नहीं दिया चाहता, क्योंकि स्त्री के हृदय में कष्ट पहुंचाना बीरता का लक्षण नहीं है लेकिन मैंने किसी प्रत्युपकार की आकांक्षा से तुम्हारा उपकार नहीं किया है और न मैं किसी इनाम की लालच इतनी दर तुम्हारे साथ आया हूं।"

मेरी बात सुन कर हमीदा ने एक ठंढी सांस ली और कहा ,अय अजनबी बहादुर! तुम चाहे अफरीदी क़ौम को बिल्कुल "जाहिल, जंगली, उजड्ड और बेदर्द समझो' लेकिन यह कोम एहसान