लेने से तुम्हारी बहादुरी में कोई धब्बा न लगेगा, और तुम्हारे ऐसा बहादुर शख्स एक औरत के न्योते से इनकार करके उसके नन्हे से दिलको न दुखाएगा।"
जगदीशबाबू! हमीदा ने उस समय जिस सरलता से ये बातें कही थीं, उसमें कुछभी बनावट कहीथी, अतएव उसकी उस बिनती की मैं उपेक्षा न कर सका और बोला,-"सुन्दरी। यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है तो मैं सबभांति तयार हूं।"
यह सुनते ही हमीदा उठकर उस कारागार के द्वारपर चली और वहां पर खड़े हुए पहरेदार से कुछ कह कर तुरंत लौट आकर फिर मेरे सामने बैठ गई। थोड़ी ही देर में वह सिपाही एक सुराही ठंढ़ाजल एक गिलास शर्वत कटोराभर दूध, कई रोटियां, मेवे, फल और शराब लाकर और मेरे सामने रखकर बाहर चलागया। मैं भूखा प्यासा तो था ही सो खूब पेट भर मैंने भोजन किया, पर शराब को बिल्कुल न छुवा। मैंने हमीदा से भी अपने साथ खाने के लिये कहाथा, पर उसने इस ढंग और बिनती से उस समय इस बात को अस्वीकार किया कि फिर मैने उससे विशेष आग्रह करना उचित न समझा।
जब मैं खा पी चुका तो हमीदा के सीटी बजाने पर वही सिपाही आकर जूठे बर्तन उठा लेगया और एक खब मोटा कंबल देगया! वह कंबल दो अंगुल मोटा था और इतना लंबा चौड़ा था कि जिसे बिछा कर बीस पच्चीस आदमी सो सकते थे। सो मैंने कंबल को बिछाया और उसपर हमीदा भी बैठी और मै भी बैठा।
हाथ की मशाल हमीदाने एक छेद में खोंस दी थी, उसीके धंधले उजाले में मैं उसके सरलतामय मुखड़े को देखकर उस कारागार में भी किसी अनिर्वचनीय सुख का अनुभव करता था।
हमीदा कहने लगी,-"तुम मेरे सिपाहियों के हाथ क्योंकर या कहां पर गिरफ्तार हुए, इसका मुझे अबतक ठीक ठीक हाल नहीं मालूम हुआ। मैंने अभी तुम्हारी गिरफ्तारी का हालसुना, लेकिन वह अधूरा था इसलिये तुम मेहरबानी कर के इसका खुलासा हाल मुझे सुनाओ।"
इस पर मैंने अपने पकड़े जाने का सारा हाल उसे सुनाया, जिसे सुन कर वह बहुत ही क्रुद्ध हुई और कहने लगी,-"ओफ़! यह पाजीपन उसी नुत्फेहराम अबदुल का है! अफ़सोस! उस हरामजादे ने बड़ी दगा की! खैर, मेरा हाल सुनो,-मैं तुम से बिदा हो कर अबदुल