सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:याक़ूती तख़्ती.djvu/२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
परिच्छेद]
(२७)
यमज-सहोदरा


की है कि जिसके एवज़ में तुम मेरा शुक्रिया अदा करो। लेकिन खिलाफ इसके तुमने मेरे साथ बहुत बड़ी भलाई की और मेरेही सबब से तुम कैद किए गए। अफ़सोस! इस बात का खयाल जब मुझे होता है तो मेरे कलेजे का खून उबाल खाने लगता है और गुस्से व शर्म के मारे यही जी चाहता है कि बस फ़ौरन अपने तई आप हलाक कर डालूं! मगर खैर, देखा जायगा!

मैंने कहा,-"हमीदा! तुम मेरे तुच्छ प्राण के लिये व्यर्थ इतना पछतावा कर रही हो!"

उसने कहा--"बस, चुप रहो, और मुझे जियादह शर्मिन्दा न करो। लेकिन याद रक्खो कि मैं उसी दिन खुदा के सामने अपना मुंह दिखलाने काबिल हूँगी, जब कि तुम्हें इस कैद से छुटकारा दिलाकर तुम्हें खुशी खुशी अफ़रीदियों की सहद के बाहर कर सकूँगी। लेकिन खैर, इस बक्त इन बातों की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं देखती हूं कि थकावट और भूख प्यास के सबब तुम बहुत काहिल हो रहे हो, इसलिये मैं चाहती हूं कि पहिले तुम्हारे खाने पीने का बंदोबस्त करना चाहिए।"

मैने कुछ रुखाई के साथ कहा,-मैं बैरियों के यहां कुछ न्योता जीमने केलिये नहीं बुलाया गया हूं, इसलिये मैं भूखप्यास का कष्ट सहलूंगा पर अत्याचारी अफरीदियों की कैद में मैं अन्न जल का स्पर्श भी न करूंगा।"

मेरी बातें कदाचित हमीदा के कोमल हृदय में तीर सी लगी, जिससे वह ज़रा तलमला उठी और कुछ देरतक सिर झुकाए हुए धर्ती की ओर देखती रही। फिर उसने मेरी ओर देखा और उदासी के साथ यों कहा,-"अय बहादुर, जवान! मुझमें अब इतनी ताक़त बाकी नहीं रह गई है कि मैं तुम्हारी मर्जी के खिलाफ़ कुछ भी कर सकूँ। गो, तुम इस बात का यकीन न करो, लेकिन खुदा जानता होगा कि मैं तुम्हारी दुश्मन नही हूं, बल्कि आपकी दोस्त और भलाई चाहने वाली हूं। मेरे वालिद और सारे के सारे अफ़रीदी बेशक तुम्हारे जानीदुश्मन हैं, लेकिन तुम्हारे दुश्मन की दुख्तर होने पर भी मैं इसवक्त तुम्हें अपना दोस्त समझ कर इस बात की आर्जू रखती हूं कि तुम मेरे न्योते को कबूल करोगे और इस बात से इनकार कर मेरी दिल शिकनी न करोगे। मैं समझती हूं कि मेरी आर्जू मान