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(३४)
[चौथा
याक़ूतीतख़्ती


इतना कह कर अबदुल तेज़ी के साथ उस गुफा के बाहर चला गया; तब हमीदा ने 'कादिर कादिर' कह कर कई आवाज़े दी, पर बाहर से किसीने कोई जवाब न दिया। यह देख कर हमीदा उठ खड़ी हुई और अपनी मशाल अपने हाथ में लेकर कंदरा के बाहर चली। मैं भी उसके साथ साथ कंदरा के द्वार तक आकर ठहर गया। हमीदा कंदरा से बाहर हुई और बाहर जाकर उसने एक अफरीदी को एक पेड़ से जकड़ कर बंधा हुआ पाया। यह वही व्यक्ति था कि जिसे मैंने वह याकूती तख्ती दी थी और जिसे हमीदा ने 'कादिर कादिर' कह कर पुकारा था।

निदान, हमीदा ने उसके बंधनों को खोल दिया और पूछा,-"तुम्हारी यह हालत कैसे हुई?"

इस पर कादिरने पहिले अदब से झक कर हमीदा को सलाम किया और फिर इस प्रकार कहना प्रारंभ किया,-"हुजूर! आपने मुझे यह हुक्म दिया था कि,-'जब तक मैं इस खोह में रहे, बगैर मेरी इजाज़त कोई शख्स इसके अन्दर न आने आवे ' लिहाज़ा, मैं पहरे पर मुस्तैद था कि यकबयक अबदुल आया और इस खोह के अन्दर जाने लगा। मैंने उसे रोका और खोह के भीतर जाने देने से इनकार किया। आखिर वह लौट गया और फौरन ही कई आदमियों के साथ आकर उसने मुझे इस पेड़ के साथ बांध दिया। इसके बाद अबदुल के साथी, जिनके चेहरों पर नकाबें पड़ी हुई थीं; एक ओर को चल गए और वह इस खोह के अंदर गया।"

यह सुनकर हमीदा ने अपने कुर्ते के जेब से निकालकर कई अशफ़ियां उल सिपाही के हाथ पर धरी और मेरी ओर स्नेहपूर्वक देखकर वह एक ओर को चली गई। उसके जाने पर उस खोह का द्वार पूर्ववत बंदकर दिया गया।

उस अफरीदी कैदखाने में फिर मुझे चिन्ताओं ने घेर कर सताना प्रारंभ किया और मैं भांति भांति के सोचविचारों के समुद्र में डूबने उतराने लगा। मैंने उस एक ही रात्रि को जैसे जैसे तमाशे देखे थे और जैसी जैसी बातें सुनी थीं उनसे मेरा विस्मय बराबर बढ़ता ही गया। उस समय मुझे यही जान पड़ने लगा था कि मानो मैं ‘अलिलैला' की हज़ार रातों में से किसी एक रात्रि का नायक बनाया गया हूं और किसी कल्पनामयी सुन्दरी के प्रेम में डूबकर किसी दानवनगरी के पाषाणमय कारागार में बंदी किया गया हूं! किन्तु जगदशिबाबू!