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पृष्ठ:याक़ूती तख़्ती.djvu/३७

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परिच्छेद]
(३५)
यमज-सहोदरा


उस समय का वह कल्पनामय स्वप्न आज सत्य होगया है और तुम्हारे कथनानुसार मैं सचमुच अब अपने को बड़ा भाग्यवान समझ रहा हूं।

किन्तु उस समय मेरे बाहर भीतर-चारोओर अंधकारही अन्धकार था और में मानसिक पीड़ा से बिकळ हो, रहरह कर हमीदा को पुकार उठता था, परन्तु उस समय वहां पर हमीदा थी कहां, जो मेरे प्रष्ण का उत्तर देती?

थोड़ी देर के अनन्तर जब मेरा चित्त कुछ स्वस्थ हुआ और मैंने चिन्ताओं के उत्पात से कुछ छुटकारा पाया तो उसी अन्धकारमय कारागृह में एक ओर पड़ रहा और पड़ा पड़ा सोचने लगा कि क्या बदज़ात अबदुल सचमुच भरे दरबार में अफरीदी सर्दार के सामने उसकी लड़की (हमीदा) का अपमान करेगा; और क्या मेरी ही भांति उस वीरनारी को भी किसी भयानक दंड की कठोरता झेलनी पड़ेगी?

किन्तु सोचसांगर में पड़कर मुझे किसी ओर भी किनारा नहीं दिखलाई देता था, अतएव एक ठंढी लांस भर कर मैंने निद्रादेवी का आवाहन करना प्रारंभ किया। बड़ी बड़ी आराधनाओं से भी निन्द्रा तो न आई,पर उसने अपनी छोटी बहिन तंद्रा को अवश्य भेज दिया, जिसकी गोद में पड़कर मैं हमीदा के प्रेमपूर्ण स्वरूप का दर्शन करने लगा।

अहा! उस तंद्रामय स्वप्न में मुझे एक ओर सुख दिखलाई देता था, और दूसरी ओर दुःख; एक ओर मृत्यु की भयंकरी मूर्ति नृत्य करती हुई दीख पड़ती थी और दूसरी ओर अमृत; एक ओर जागरण, क्लेश, बन्धन और पराधीनता मुझे घेर रही थी और दूसरी ओर तंद्रा के मोह में सुख की मृगमरीचिका, हमीदा का प्रेम और स्वर्गराज्य की उज्वल किरणे दिखलाई देती थीं। मैंने उसी तंद्रामय स्वप्न में देखा कि हमीदा मेरे गले से लपटी हुई मेरे कपोलों का स्नेहपूर्वक चुंबन कर रही है! आह! उस अफरीदी कैदखाने में भी स्वप्न ने मुझे ऐसे सब्जबाग दिखलाए थे!!!