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याक़ूतीतख़्ती


मुहम्मदी धर्म का ग्रहण! किन्तु ऐसा मैं कदापि नहीं कर सकता! अहा! जिस समय गुरु तेगबहादुर ने मुसलमानी धर्म के ग्रहण करने की असम्मति प्रगट की थी और औरंगजेब के हुक्म से वेकत्ल किए गए थे। तो जब जल्लाद की तेज़ तल्वार उनके सिर पर उठी थी, उस समय उन्होंने यही कहा था कि,-"मैंने सिर दिया, परन्तु धर्म न दिया!" आहा! उसी पूजनीय गुरु का शिष्य हो कर मैं प्राण के भय से धर्म त्याग करूंगा! कदापि नहीं। हाय, वह जीवन किस काम का रहेगा, यदि मैं निज धर्म त्याग करके कापुरुष की भांति अपने बैरीसे निज प्राण की भिक्षा मांगूंगा! बस, ऐसे तुच्छ जीवन से मुझे कुछ भी प्रयोजन नहीं है, बरन ऐसे क्षणिक जीवन से मरना कहीं बढ़ कर है। जगदीशबाबू! इस प्रकार मनही मन निश्चय कर के मरने के लिये में तैयार हुआ।

चौथे दिन बड़े तड़के ही पहरेवाले ने मुझे दरबार में चलने के लिये तैयार होने को कहा! मैं तो और भी पहले से तैयार था, सो चट उसके साथ हो लिया और अपने मामली कामों से छट्टी पा कर दरबार में पहुँचा। मैंने इस बात का सिद्धान्त कर लिया था कि आज का दरबार केवल मेरे प्राण लेने के लियेही किया गया है। आज के दरबार में सैकड़ों अफ़रीदी सरदार नंगी तल्वार लिये बैठे थे, सरदार मेहरखां भी बड़ी शान शौकत से अपने तख्त पर बैठा था और उसके पीछे चालीस सिपाही नंगी तल्वार लिये खड़े थे, दरबार के सामने मैदान में पांच सौ सवार नंगी तत्वार और भाले लिये कतार बांधेखड़े थे और मेरे पीछे सोलह बंदूकधारी जल्लाद खड़े हुए थे। एक बेर हष्टि धुमा कर मैने यह सब देख लिया और फिर परमात्मा का स्मरण कर, तन कर मेहरखां के सामने देखा। मुझे उस प्रकार निडर भाव से खड़े देख कर कदाचित वह मनही मन झल्ला उठा और झंशला कर बोला,

"काफिर कैदी! इन तीन दिनों के अंदर तूने मेरी बात पर बखूबी गौर कर लिया होगा?"

मैंने कहा,-'हां, मैंने उस बात पर भली भांति बिचार कर लिया है।"

मेहरखां ने कहा,-"तो तू झूठे सिक्ख मज़हब को छोड़ कर छीन इस्लाम के कबूल करने के लिये राज़ी है?" यह सुनतेही मैंने मारे क्रोध के जलकर अपनी आंखों से आग