सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:याक़ूती तख़्ती.djvu/४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
परिच्छेद]
(४५)
यमज-सहोदरा


बरसाते हुए कहा, --नहीं, कभी नहीं! क्योंकि जिस तरह तू मेरे मज़हब को झूठा कह रहा है उसी तरह में भी तो मेरे मज़हब को झूठा समझ रहा हूँ! फिर मैं उसे क्योंकर स्वीकार कर सकता हूं?"

यह बात मैंने बड़े आवेश के साथ कही; क्योंकि जैसे बुझने के समय दीपक एकबार 'दप्प' से जल उठता है, उसी प्रकार मृत्यु को सामने देखकर मेरा हृदय भी उपसित हो उठा और मैंने बड़ी दृढ़ता के साथ ऊपर कहा हुआ वाक्य कहा। मेरी बातें सुनकर मेहरखां ने कहा,-"सुन, बेवकूफ़! मैं तुझे यकीन दिलाता हूं कि अगर तू मुसलमान हो जायगा तो तुझे मैं अपने दरबारी अमीरों में शुमार कर लूंगा और अपनी दुख्तर हमीदा को भी तेरे हवाले करूंगा। इसके अलावे, अगर तू हिन्दुस्तान को जाया चाहेगा, तो अंग्रेज़ों से लड़ाई खतम होने के बाद तुझे खुशी से अपने सिवाने के बाहर पहुंचा दूंगा।"

जगदीशबाबू! यह लालच ऐसे भयंकर हलाहल से मिला हुआ था कि जिसकी कड़वाहट से मेरा सिर घूम गया और मैंने बड़े कड़े शब्दों में कहा,-"छिः! तू क्या बावला हुआ है, जो मुझे लालच दिखला कर मेरे धर्म से मुझे डिगाना चाहता है! अपने दरबारी अमीरों में शुमार करना या हमीदा को देडालना तो दूर रहा, अगर तू मझे अपने सिंहासन के साथ विहिश्त की सारी हूरों को भी मुझे देडाले तब भी मैं अपना धर्म न छोड़ेगा। और यदि कभी मुझे ऐसा अवसर मिला तो मैं तेरी लड़की हमीदा को अपने मज़हब में लाकर तब उससे शादी करूंगा, अन्यथा नहीं। तू क्या नहीं जानता कि अबतक हज़ारों मुसलमान दीन इस्लाम को छोड़ छोड़ कर पवित्र सिक्ख धर्म में दीक्षित हो चुके हैं और एक सिक्ख ने भी मुसलमानी मत को ग्रहण नहीं किया है। इसलिये तू मुझसे ऐसी आशा न रख।”

मेरी बात सुनकर मेहरखां मारे क्रोध के थर्रा उठा और ज़ोर से चिल्ला कर कहने लगा,-"बेवकूफ़ काफ़िर, अब तेरी मौत बिल्कुल तेरे नज़दीक पहुंच गई है। अफ़सोस, तू जानबूझकर अपनी जान देरहा है, वरन मैं यह नहीं चाहता था कि नाहक तेरी जान लूं।"

उसकी यह बात सुनकर मैं ज़ोर से हंसपड़ा और कहने लगा, "मुझे यह बात पहिले नहीं मालूम थी कि तुझमें रहमदिली कूट कूट कर भरी हुई है। अस्तु, सदार मेहरखां! तू इस बात की फ़िक्र न कर और मेरे लिये अपना दिली अफ़सोस जाहिर मत कर। तू निश्चय जान