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पृष्ठ:याक़ूती तख़्ती.djvu/५५

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परिच्छेद]
(५३)
यमज-सहोदरा


इसके अनन्तर कुसीदा चली गई और उसके जाने पर वह प्रवेशद्वार बंद होगया फिर हमीदा ने मुझे बलकारक भोजन कराया और इधर उधर की बहुतसी बातें करने के बाद उसने कहा,-"प्यारे, निहालसिंह! मुझे इस बात का बड़ा अफसोस है कि मैं दिन के वक्त आपके पास ज्यादे देर तक नहीं रह सकती। हां, रातभर मैं आज़ादी के साथ रह सकती हूं,। क्योंकि अंगेरज़ों से गहरी लड़ाई छिड़ जाने के सबब मेरे वालिद और अबदुल रातभर अफरीदी फ़ौज के मोर्चे पर रहते हैं, इसलिये आपके पास रहने का मुझे अच्छा मौका मिलता है। इसलिये में उम्मीद करती हूं कि आप मुझे ख़ुशी से इजाज़त देगें और में इस वक्त आप से रुखसत होकर फिर रात को आजाऊंगी और रातभर आपकी खिदमत करूंगी!"

उस करुणामयी, प्रेममयी और दयामयी अफ़रीदी युवती की सरल बाते सुनकर मेरी आंखों में प्रेम के आंसू उमग आए और मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा,-'हमीदा! तुम मुझे इतना चाहती हो!"

यह सन और अपना हाथ खेंच कर वह उठ खड़ी हुई और बोली,-"इस बात का जवाब तो आप अपने दिलही से पा सकते हैं।"

इसके अनन्तर उसने एक किताब निकाल कर मुझे दी और कहा, "तनहाई की हालत में यह किताब आपको बखूबी खुश करेगी और मैं बालिद के चले जाने पर रात को फिर आपके पास आजाऊंगी।"

इतना कहकर हमीदा उठी और किसी हिकमत से उस पत्थर को हटा कर उस कोठरी से बाहर होगई और बाहर जाकर उसने उस पत्थर को फिर ज्यों का त्यों बराबर कर दिया।

वह पुस्तक फ़ारसी भाषा के सुप्रसिद्ध नीतिविशारद कवि 'सादी' की 'गुलिश्तां' थी, जिसका में बड़ा भारी रसिक था, इस लिये उस पुस्तक को बड़े प्रेम से में देखने लगा। लगभर दो घंटे तक उस पुस्तक को मैं देखता रहा, इतने में कुसीदा आई और मुझे एक ग्लास शर्बत पिला कर चली गई। कदाचित वह कोई औषधि थी, जिसके पीने के थोड़ीही देर बाद मुझे नीद आने लगी और मैं गहरी नीद में सोगया।

जब मैं जागा, रात होगई थी, उसी कोने में दीया बल रहा था आर हमीदा मेरे सिर में कोई तेल लगारही थी। मैंने आंखें मलकर यह सब