पृष्ठ:याक़ूती तख़्ती.djvu/५९

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परिच्छेद]
(५९)
यमज-सहोदरा


यह देख कर मैं रुक गया और मुझे रुकते देख हमीदा भी रुक गई और बोली,-"क्यों, आप ठहर बन्यों गए?"

मैंने कहा,-"क्या तुम नहीं देखती कि सामने पहरेबाला टहल

हमीदा,-"फिर इससे क्या?"

मैं,-"अब क्यों कर इस घाटी के पार जा सकते हैं?"

हमीदा,-"आप क्या पागल हुए हैं? इतनी दूर आकर क्या अब आगे पैर नहीं बढ़ता?"

मैं,-"पहरेवाले का क्या बंदोबस्त किया जाय?"

हमीदा,-क्या आपने कोई राय ठहराई है?"

मैं,-"क्या कोई दूसरा रास्ता नहीं है?"

हमीदा,-"है क्यों नहीं, लेकिन ऐसे सुभीते का और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। और रास्तों में हज़ारों पहरेदार मुस्तैदी के साथ पहरा देते होंगे।"

मैं,-"तब यहांसे लौट कर मैं कहां जाऊं?"

यह सुन कर हमीदा झल्ला उठी और कड़क कर बोली"-जहन्नुम में जाओ! छिः! जो बहादुर होकर एक पहरेदार को देख कर इतना डरता है, उसके लिये जहन्नुम से विहतर और कोई जगह नहीं है। अब तक मैं जानती थी कि में एक बहादुर शख्स के साथ आ रही हूँ! अगर यह जानती होती कि मेरा साथी निरा बोदा और भगेड़ है तो मैं खुद अब तक इस राह के साफ़ करने का बंदोबस्त कर डालती। अगर तुमको इस कदर पस्तहिम्मती ने दबा लिया है तो फिर तुम्हारा बंदूक रखना बिल्कुल बेफ़ाइदे है। मैं समझती हूं कि मुझे अब तुम्हारे खातिर अपनी बंदूक से काम लेना पड़ेगा। बस, बंदूक तुम ज़मीन में रख दो, क्योंकि इसके उठाने लायक अब तुम नहीं रहे।"

ओह! यह कैसा तीव्र तिरस्कार था! मैं अब बंदूक के धारण करने योग्य न समझा गया! मेरे पुरुषों ने बंदूक धारण किए किएही कितने बैरियों के प्राण लेकर रणक्षेत्र में अपने प्राण त्याग दिए, मैं अपने प्राण को तुच्छ समझ शौक से अपने राजा की सहायता के लिये इस समर में आया, अपने प्राण की ममता दमनपूर्वक सिक्खजाति का गौरव रक्खा और धमरक्षा के लिये जल्लादों के आगे भी