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पृष्ठ:याक़ूती तख़्ती.djvu/६

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याक़ूतीतख़्ती


आकृति और विभिन्न प्रकृति देखकर देखनेवाले भीतर ही भीतर मुस्कुराते थे। क्योंकि निहालसिंह अपनी स्वदेशी पोशाक में रहते थे और मैं काले रंग को दूर न कर सकने पर भी साहबी पोशाक में रहता था। बस, यही देखनेवालों के मुस्कुराने का कारण था। पहाड़ पर घूमने के समय हम दोनों के हाथ में एक बड़ीसी बांस की लाठी रहती थी और उपन्यास के नायक की भांति हमदोनों बेफ़िक्री के साथ पहाड़ की सैर किया करते थे।

एक दिन तीसरे पहर के समय हमलोग घूमते फिरते पहाड़ की एक ऐसी जगह पर जा पहुचे, जहां पर इसके पहिले कभी नहीं गए थे। वह स्थान बहुत ही सुहावना था। एक पर्वत की कंदरा में से बड़े वेग से जलप्रवाह आकर नदीरूप में बह रहाथा। वहां दोनो किनारों की वृक्षश्रेणी इतनी घनी थी कि जिसमें सूर्यरश्मि किसी तरह भी नहीं घुस सकती थी। यही कारण था कि वहांपर एक पहर दिन रहते भी संध्याकाल की तामसी छाया फैल रही थी। वह स्थान और वहांका प्राकृतिक दृश्य इतना सुहावना था कि हमलोग एक स्वच्छ शिलाखंड पर पैर लटका कर बैठ गए और इधर उधर की बातें करने लगे।

उस समय 'प्राकृतिक प्रसङ्ग' के साथ ही साथ 'प्रेमप्रसङ्ग' की बात चल पड़ी और हमदोनों में देरतक 'प्रेम' पर तर्क वितर्क होता रहा। अन्त में मैने कुछ ताने के साथ निहालसिंह से कहा,

"क्यों, भई निहालसिंह! 'प्रेम' के विषय में जैसी तुम्हारी बिमल और परिष्कृत मति है, उससे तो मुझे ऐसा ही प्रतीत होता है कि तुम इस (प्रेम) मार्ग में किसी अच्छे प्रेमिक (प्रेमिका?) से दीक्षा ले चुके होगे किन्तु इस विषय में तो तुमने अबतक मुझे कोई बात ही न बतलाई! अभी तक तुमने मुझे यह भी न बतलाया कि तुम विवाहित हो या अविवाहित, और तुमने इस प्रेममार्ग का सचमुच अनुसरण किया है, या योंही सुनी सुनाई बात पर विश्वास करके 'प्रेम' पर गंभीर व्याख्यान देना सीखा है।"

मेरी बात सुनकर निहालसिंह ने एक 'कहकहा' लगाया और मेरी ओर देरतक घूरकर कहा,-

"तो, तुमभी तो अभीतक क्वारे हो! फिर तुम इस 'प्रेमप्रपंच' पर ऐसा अच्छा तर्क वितर्क ऐसे करते हो! क्या विवाह के बिना कोई 'प्रेम' का वास्तविक तत्व पाही नहीं सकता!"