पृष्ठ:याक़ूती तख़्ती.djvu/६१

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परिच्छेद]
(५९)
यमज-सहोदरा


सिर काट कर इस पहाड़तली में आपभी कट मरूंगा।"

मेरी लंबी चौड़ी बात सुन कर वीरनारी हमीदा खिलखिला कर हंस पड़ी ओर बोली,-"वाह हज़रत! आपने मुझे ऐसीही नाचीज़ समझ रक्खा है कि मैं इस आकृत के वक्त आपको अकेला छोड़ कर यहांसे चली जाऊंगी! हर्गिज़ नहीं। क्या सिक्ख मरना जानते हैं और अफरीदी औरते मरना नहीं जानती! जनाब! मैं भी लड़कपन ही से मौत के साथ खेलती आती हूं, इसलिये उससे में ज़राभी नहीं डरती। फिर आपले दूर होने के बनिस्वत तो आपके साथ रह कर मरना कहीं अच्छा है! साहब! मेरी जिन्दगी बिल्कुल बेकार है, इस लिये जहां तक जल्द मुझे इस बला से छुटकारा मिले, उतनाहीं अच्छा क्योंकि मुझे अब जी कर करना ही क्या है! इसलिये, प्यारे! मेरे लिये तुम जरा भी फिक्र न करो और इसे सच जानो कि अगर जरूरत पड़ेगी तो मैं खुद इस पहरेदार को मार कर तुहारी राह साफ कर दूंगी और तुम्हें अफरीदी सिवाने से बाहर पहुंचा कर, तभी लौटूंगी।"

हमीदा की बातें सुन कर मैं सन्नाटे में आगया और सोचने लगा कि यह स्त्री दानवी है कि देवी, पावाणी है कि पुष्पमयी और बज्रहृदया है कि कोमलप्राणा! बस, उस समय में सब कुछ भूलकर इन्हीं बातों कोही सोचने लगा और मनही मन यह प्रण करने लगा कि यह मौत को इस चाव से क्यों बुला रही है। आह! इस रहस्यमयी युवती के हृदय के निगूढ़ भाव का मैं अभीतक न समझ सका और न यही जान सका कि अब ऐसी अवस्था में मुझे क्या करना चाहिए? मैं जहां पर रुक गया था, उसो जगह खड़े खड़े सोचा किया और इधर धीरे धीरे रात भी बीत चली।

हमीदा ने मुझे चुप चाप खड़े हुए देख कर कहा,-"बस: अध ज़ियादह गौर करने का समय नहीं है, और इतने सोचने की बातही कौन सी है! देखो रात बीत चली,सुबह की सफेदी आस्मान पर दौड़ गई और हमें अभी दूर जाना है।"

मैंने कहा,- "प्यारी हमीदा! मैं तुम्हारीही बातों को सोच रहा था। देखो, दूर से, एकाएक बंदूक दाग कर इस पहरेवाले को मार डालना बहुत सहज बात है, परन्तु इस निरपराध मनुष्य पर इस प्रकार हाथ उठाने में में असमर्थ हूं। हां उसे होशियार करके लड़ना पड़े तो मैं तैयार हूं।"