पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/११

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वैराग्य प्रकरण।

राजा ने गन्धमादन पर्वत पर बड़ा तप किया तब देवताओं के राजा इन्द्र ने मुझको बुलाकर आज्ञा दी कि हे दूत! तुम गन्धमादन पर्वत पर जो नाना प्रकार की लताओं और वृक्षों से पूर्ण है, विमान अप्सरा और नाना प्रकार की सामग्री एवम् गन्धर्व, यक्ष, सिद्ध, किन्नर, ताल, मृदङ्गादि वादित्र संग ले जाकर राजा को विमान पर बैठाके यहाँ ले आओ। तब मैं विमान और सामग्री सहित जहाँ राजा था आया और राजा से कहा; हे राजन! तुम्हारे कारण विमान ले आया हूँ; इस पर आरूढ़ होकर तुम स्वर्ग को चलो और देवताओं के भोग भोगो। इतना सुन राजा ने कहा कि हे देवदूत! प्रथम तुम स्वर्ग का वृत्तान्त मुझे सुनाओ कि तुम्हारे स्वर्ग में क्या-क्या दोष भौर गुण हैं तो उनको सुनके मैं हृदय में विचारूँ। पीछे जो मेरी इच्छा होगी तो चलूँगा। मैंने कहा कि हे राजन्! स्वर्ग में बड़े-बड़े दिव्य भोग हैं। जीव बड़े पुण्य से स्वर्ग को पाता है। जो बड़े पुण्यवाले होते हैं वे स्वर्ग के उत्तम सुख को पाते हैं; जो मध्यम पुण्यवाले हैं वे स्वर्ग के मध्यम सुख को पाते हैं और जो कनिष्ठ पुण्यवाले हैं वे स्वर्ग के कनिष्ठ सुख को पाते हैं। जो गुण स्वर्ग में हैं वे तो तुमसे कहे, अब स्वर्ग के जो दोष हैं वे भी सुनो। हे राजन्! जो आपसे ऊँचे बैठे दृष्ट आते हैं और उत्तम सुख भोगते हैं उनको देखकर ताप की उत्पत्ति होती है क्योंकि उनकी उत्कृष्टता सही नहीं जाती। जो कोई अपने समान सुख भोगते हैं उनको देखकर क्रोध उपजता है कि ये मेरे समान क्यों बैठे हैं और जो आपसे नीचे बैठे हैं उनको देखकर अभिमान उपजता है कि मैं इनसे श्रेष्ठ हूँ। एक और भी दोष है कि जब पुण्य क्षीण होते हैं तब जीव को उसी काल में मृत्युलोक में गिरा देते हैं, एक क्षण भी नहीं रहने देते। यही स्वर्ग में गुण और दोष हैं। हे भद्रे! जब इस प्रकार मैंने गजा से कहा तो राजा बोला कि हे देवदूत! उस स्वर्ग के योग्य हम नहीं हैं और हमको उसकी इच्छा भी नहीं है। जैसे सर्प अपनी त्वचा को पुरातन जानकर त्याग देता है वैसे ही हम उप्र तप करके यह देह त्याग देंगे। हे देवदूत! तुम अपने विमान को जहाँ से लाये हो वहीं ले जाओ, हमारा