पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१२

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योगवाशिष्ठ।

नमस्कार है। हे देवि! जब इस प्रकार राजा ने मुझसे कहा तब मैं विमान और अप्सरा आदि सबको लेकर स्वर्ग को गया और सम्पूर्ण वृत्तान्त इन्द्र से कहा। इन्द्र बहुत प्रसन्न हुआ और सुन्दर वाणी से मुझसे बोला कि हे दूत! तुम फिर जहाँ राजा है वहाँ जाओ। वह संसार से उपराम हुआ है। उसको अब आत्मपद की इच्छा हुई है इसलिए तुम उसको अपने साथ वाल्मीकिजी के पास, जिसने आत्मतत्त्व को आत्माकार जाना है, ले जाकर मेरा यह सन्देशा देना कि हे महाऋषे! इस राजा को तत्त्ववोध का उपदेश करना क्योंकि यह बोध का अधिकारी है। इसको स्वर्ग तथा और पदार्थों की भी इच्छा नहीं इससे तुम इसको तत्त्वबोध का उपदेश करो और यह तत्त्वबोध को पाकर संसारदुःख से मुक्त हो। हे सुभद्रे! जब इस प्रकार देवराज ने मुझसे कहा तब मैं वहाँ से चलकर गजा के निकट आया और उससे कहा कि हे राजन्! तुम संसारसमुद्र से मोक्ष होने के निमित्त बाल्मीकिजी के पास चलो; वे तुमको उपदेश करेंगे। उसको साथ लेकर मैं वाल्मीकिजी के स्थान पर आया और उस स्थान में राजा को बैठा और प्रणामकर इन्द्र का सन्देशा दिया। तब वाल्मीकिजी ने कहा, हे राजन! कुशल तो है? राजा बोले, हे भगवन्! आप परमतत्त्वज्ञ और वेदान्त जाननेवालों में श्रेष्ठ है, मैं आपके दर्शन करके कृतार्थ हुआ भौर अब मुझको कुशलता प्राप्त हुई है। मैं आपसे पूछता हूँ कृपा करके उत्तर दीजिए कि संसार बन्धन से कैसे मुक्ति हो? इतना सुन वाल्मीकिजी बोले हे राजन्! महारामायण पोषध तुमसे कहता हूँ उसको सुनके उसका तात्पर्य हृदय में धारने का यत्न करना। जब तात्पर्य हृदय में धारोगे तब जीवन्मुक्त होकर विचरोगे। हे राजन्! वह वशिष्ठजी और रामचन्द्रजी का संवाद है और उसमें मोक्ष का उपाय कहा है। उसको सुनकर जैसे रामचन्द्रजी अपने स्वभाव में स्थित हुए और जीवन्मुक होकर विचरे हैं वैसे ही तुम भी बिचरोगे। राजा बोले, हे भगवन्! रामचन्दनी कौन थे कैसे थे और कैसे होकर विचरे सो कृपा करके कहो? बाल्मीकिजी बोले, हे राजन्! आप के वंश से सच्चिदानन्द विष्णुजी ने