वहाँ इच्छा नहीं रहती और सन्तोषवान् भोगों से दीन नहीं होता। वह उदारात्मा सर्वदा आनन्द से तृप्त रहता है। जैसे मेघ पवन के माने से नष्ट हो जाता है वैसे ही सन्तोष के आने से इच्छा नष्ट हो जाती है। जो संतोषवान् पुरुष है उसको देवता और ऋषीश्वर सब नमस्कार करते और धन्य धन्य कहते हैं। हे रामजी! जब सन्तोष करोगे तब परम शोभा पावोगे।
इति श्रीयोगवाशिष्ठे मुमुक्षु प्रकरणे संन्तोषनिरूपणन्नामपञ्चदशस्सर्गः॥१५॥
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जितने दान और तीर्थादिक साधन हैं उनसे आत्मपद की प्राप्ति नहीं होती, आत्मपद की प्राप्ति साधुसङ्ग से ही होती है। साधुसङ्गरूपी एक वृक्ष है और उसका फल आत्मज्ञान है। जिस पुरुष ने फल की इच्छा की है सो अनुभवरूपी फल को पाता है। जो पुरुष आत्मानन्द से रहित है सो सत्सङ्ग करके आत्मानन्द से पूर्ण होता है जो अज्ञान से मृत्यु पाता है सो सन्त के सङ्ग से ज्ञान पाकर अमर होता है और जो आपदा से दुःखी है सो सन्त के सङ्ग से सम्पदा पाता है। आपदारूपी कमल का नाश करनेवाली सत्सङ्गरूपी बरफ की वर्षा है। सत्सङ्ग से ही आत्मबुद्धि प्राप्त होती है जिससे मृत्यु नहीं होती और सब दुःखों से छूटकर परमानन्द को प्राप्त होता है। हे रामजी! सन्त की संगति से हृदय में ज्ञानरूपी दीपक जलता है जिससे अज्ञानरूपी तम नष्ट हो जाता है और बड़े बड़े ऐश्वर्य को प्राप्त होता है। फिर उसे किसी भोग्य पदार्थ की इच्छा नहीं रहती और बोधवान् होके सबसे उत्तम पद में विराजता है जैसे कल्पवृक्ष के निकट जाने से वाञ्छित फल की प्राप्ति होती है वैसे ही संसारसमुद्र के पार उतारनेवाले सन्तजन हैं। जैसे धीवर नौका से पार लगाता है वैसे ही सन्तजन युक्ति से संसारसमुद्र से पार करते हैं। हे रामजी! मोहरूपी मेघ का नाश करने वाला सन्त का सङ्ग पवन है। जिसको अनात्मदेहादिक से स्नेह नष्ट हुआ है और शुद्ध आत्मा में जिसकी स्थिति है वह उससे तृप्त हुआ है। फिर संसार के इष्ट अनिष्ट में उसकी बुद्धि चलायमान नहीं होती, वह सदा समताभाव में स्थित रहता है। सन्तजन संसारसमुद्र के पार उतारने में पुल के समान