पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१२५

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मुमुक्षु प्रकरण।

आता है वहाँ सन्तोष, उपशम भोर सत्संग भी आ रहते हैं। जैसे श्रेष्ठ मन्त्री से राज्य लक्ष्मी आ स्थित होती है वैसे ही जहाँ विचार होता है वहाँ और भी तीनों आते हैं। उससे हे रामजी! जहाँ ये चारों इकट्ठे होते हैं उसे परम श्रेष्ठ जानना। हे रामजी! यदि ये चारों न हों तो एक का तो अवश्य आश्रय करना। जब एक आवेगा तब चारों आ स्थित होंगे। मोक्ष की प्राप्ति के ये चार परम साधन हैं और किसी उपाय से मुक्ति न होगी। श्लोक—"सन्तोषः परमो लामः सत्सङ्गः परमं धनम् । विचारः परमं बानं शमं च परमं सुखम्॥" हे रामजी! ये परम कल्याणकर्ता हैं। जो इन चारों से सम्पन्न है उसकी ब्रह्मादिक स्तुति करते हैं। इससे दन्त को दन्त लगा इनका आश्रय करके मन को वश करो। हे रामजी! मनरूपी हस्ती विचाररूपी अंकुश से वश होता है। मनरूपी वन में वासनारूपी नदी चलती है उसके शुभ अशुभ दो किनारे हैं। पुरुषार्थ करना यह है कि अशुभ की ओर से मन को रोक के शुभ की ओर चलाना। जब अन्तर्मुख आत्मा के सम्मुख वृत्ति का प्रवाह होगा तब तुम परमपद को प्राप्त होगे। हे रामजी! प्रथम तो पुरुषार्थ करना यही है कि अविचाररूपी ऊँचाई को दूर करे। जब अविचाररूपी बेंट दूर होगा तब आप ही प्रवाह चलेगा। हे रामजी! दृश्य की ओर जो प्रवाह चलता है सो बन्धन का कारण है। जब आत्मा की ओर अन्तर्मुख प्रवाह हो तव मोक्ष का कारण हो जाय। आगे जो तुम्हारी इच्छा हो सो करो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे मुमुक्षुप्रकरणे साधुसङ्गनिरूपणन्नाम्
षोडशस्सर्गः॥१६॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! ये मेरे वचन परम पावन हैं। विचारवान् शुद्ध अधिकारी को ये परम बोध के कारण हैं। शुद्ध पात्र पुरुष इन वचनों को पाके सोहते हैं और वचन भी उनको पाके शोभा पाते हैं। जैसे शरद् काल में मेघ के प्रभाव से चन्द्रमा और आकाश शोभा देते हैं वैसे ही शुद्धपात्र में ये वचन शोभते हैं और जिज्ञासु निर्मल वचनों की महिमा सुनके प्रसन्न होता है। हे रामजी! तुम परम पात्र हो और मेरे वचन अति उत्तम हैं। यह महारामायण मोक्षोपायक शान आत्म-