पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८६
उत्पत्ति प्रकरण।

से भासता है। जब तुम आत्मपद का अभ्यास करोगी तब यह विकार मिट जावेगा और आत्मपद की प्राति होगी। लीला ने पूछा हे देवि! तुमने मुझसे परम निर्मल उपदेश किया है जिसके जानने से दृश्य विसूचिका निवृत्त होती है, पर वह अभ्यास क्या है, बोध का साधन कैसे होता है, अभ्यास पुष्ट कैसे होता है और पुष्ट होने से फल क्या होता है? देवी बोली, हे लीले! जो कुछ कोई करता है सो अभ्यास बिना सिद्ध नहीं होता। सबका साधक अभ्यास है। इससे तू ब्रह्म का अभ्यास कर। है लीले! चित्त में आत्मपद की चिन्तना, कथन, परस्पर बोध, प्राणों की चेष्टा और आत्मपद के मनन को ब्रह्माभ्यास कहते हैं। बुद्धिमान् चिन्तना किसको कहते हैं सो भी सुन। शास्त्र और गुरु से जो महावाक्य श्रवण किये हैं उनको युक्तिपूर्वक विचारना और कथन करना चिन्तना कहाता है। शिष्यों को उपदेश करना, परस्पर बोध करना और निर्णय करके निश्चय करना, इन तीनों के परायण रहने को बुद्धिमान ब्रह्म अभ्यास कहते हैं। जिन पुरुषों के पाप अन्त को प्राप्त हुए हैं और पुण्य बचे हैं वे रागद्वेष से मुक्त हुये हैं, उनको तू ब्रह्मसेवक जान। हे लीले! जिन पुरुषों को रात्रिदिन अध्यात्म शास्त्र के चिन्तन में व्यतीत होते हैं और वासना को नहीं प्राप्त होते उनको ब्रह्माभ्यासी जान—वे ब्रह्माभ्यास में स्थित हैं। हे लीले! जिनकी भोगवासना क्षीण हुई है और संसार के अभाव की भावना करते हैं वे विरक्तचित्त महात्मा पुरुष भव्यमूर्ति शीघ्र ही आत्मपद को प्राप्त होते हैं और जिनकी बुद्धि वैराग्यरूपी रङ्ग से रँगी है और आत्मानन्द की ओर वृत्ति धावती है ऐसे उदार आत्मानों को ब्रह्माभ्यासी कहते हैं। हे लीले! जिन पुरुषों ने जगत् का अत्यन्त प्रभाव जाना है कि यह आदि से उत्पन्न नहीं हुआ और दृश्य को असत् जानके त्यागते हैं, परमतत्त्व को सत्य जानते हैं और इस युक्ति से अभ्यास करते हैं वे ब्रह्माभ्यासी कहाते हैं। जिस पुरुष को दृश्य की असम्भवता का बोध हुआ है और इस बुद्धि का भी जो अभाव करके परमात्मपद की प्राप्ति करते हैं सो ब्रह्माभ्यासी कहाते हैं। हे लीले! दृश्य के प्रभाव जाने बिना राग और द्वैष निवृत्त नहीं होते।