पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२२०
योगवाशिष्ठ।

निरर्थक नहीं जाने देता और सबका अर्थ पूरा करता हूँ। तुम तो साक्षात् ईश्वरी हो इसलिए मुझे यह वर दो कि देह को त्यागकर मैं लोकान्तर में पद्म के शव में प्राप्त होऊँ और मेरे मन्त्री और लीला भी मेरे साथ हों। हे देवि! जो भक्त शरण में प्राप्त होता है उसको बड़े लोग त्याग नहीं करते, बल्कि उसके सब अर्थ सिद्ध करते हैं। सरस्वती बोली, हे राजन्! ऐसा ही होगा। तू पद्म राजा के शरीर में पास होगा और बोधसहित निश्शङ्क होकर राज्य करेगा। हमारी आराधना किसी को व्यर्थ नहीं होती। जैसी कामना करके कोई हमको सेवता है वैसे ही फल को प्राप्त होता है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे लीलोपाख्याने स्वमपुरुषसत्यता-
वर्णनन्नाम त्रिंशत्तमस्सर्गः॥३०॥

सरस्वती बोली, हे राजन्! अब तुम रण में मृतक होके पूर्व पद्म राजा के शरीर में प्राप्त होगे और यह तुम्हारी भार्या और मन्त्री भी तुम्हें वहाँ प्राप्त होंगे। हे राजन्! तुम ऐसे चले जावोगे जैसे वायु चली जाती है। जैसे अश्व और मृग ऊँट और हाथी का संग नहीं करते वैसे ही तुम्हारा हमारा क्या संग है—इससे हम जाती हैं। इतना कहकर वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब इस प्रकार देवी ने कहा तब एक पुरुष ने पाकर कहा, हे राजन्! जैसे प्रलयकाल में मन्दराचल और अस्ताचल आदि पर्वत वायु से उड़ते है वैसे ही शत्रु चले आते हैं और चक्र गदा आदि शखों की वर्षा करते हैं। जैसे महापलय में सब स्थान जल से पूर्ण हो जाते हैं वैसे ही सेना से सब स्थान पूर्ण हुए हैं और उन्होंने अग्नि भी लगाई है उससे स्थान जलने लगे हैं। वे शब्द करते हैं और नदी के प्रवाह की नाई वाण चले पाते हैं। अग्नि ऐसी लगी है जैसे महाप्रलय की बड़वाग्नि समुद्र को सोखती है। तब दोनों देवियाँ और राजा और मन्त्री ऊँचे चढ़ के और झरोखे में बैठ के क्या देखने लगे कि जैसे प्रत्यकाल में मेघ चले आते हैं वैसे ही सेना चली है और जैसे प्रलय की अग्नि से दिशा पूर्ण होती हैं वैसे ही अग्नि की ज्वाला से सब दिशाएँ पूर्ण हुई हैं और उससे ऐसी चिनगारियाँ उड़ती हैं मानों तारागण गिरते हैं और अङ्गारों की वर्षा होती है उससे जीव जलते हैं।