पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२४०

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योगवाशिष्ठ।

लीले! तब मन्त्री और नौकर जो होवेंगे उनको द्वैतकलना कुछ न भासेगी कि यह क्या आश्चर्य हुआ है। इस वृत्तान्त को तू, मैं और अपूर्व लीला जानेगी और न कोई जानेगा, क्योंकि इसके सक्ङल्प को और कोई केसे जाने? लीला ने फिर पूछा, हे देवी! अपूर्व लीला जो वहाँ जाय प्राप्त हुई थी उसका शरीर तो यहाँ पड़ा है और तुम्हारा उसको वर भी था तो फिर इस देह के साथ वह क्यों न प्राप्त हुई? देवी बोली, हे लीले! छाया कभी धूप में नहीं जाती ओर सच झूठ भी कभी इकट्ठा नहीं होते यह आदि नीति है। जैसे जैसे आदि नीति हुई है वैसे ही होता है—अन्यथा नहीं होता। हे लीले! जो परवाही में वेताल कल्पना मिटी तो परवाही और वैताल इकटे नहीं होते वैसे ही भ्रमरूप जगत् का शरीर उस जगत् में नहीं जाता और दूसरे के संकल्प में दूसरा अपने शरीर से नहीं जा सकता, क्योंकि वह और शरीर है और यह और शरीर है; वैसे ही राजा के जगत् दर्पण में लीला के सङ्कल्प का शरीर नहीं प्राप्त हुआ। मेरे वर से वह सूक्ष्म देह से प्राप्त हुई। जब उसको मृत्यु की इच्छा प्राप्त हुई तब उसको उसका सा ही अपना शरीर भी भास आया। उसका शरीर संकल्प में स्थित था सो अपना संकल्प वह साथ ले गई है इससे अपने उसी शरीर से वह गई है। उसने आपको ऐसे जाना कि मैं वही लीला हूँ। हे लीले! आत्मसत्ता सर्वात्मरूप है। जैसा जैसा भावना उसमें दृढ़ होती है वैसा ही वैसा रूप हो जाता है। जिसका यह निश्चय हुआ है कि पाश्चभौतिकरूप हूँ उसको ऐसे ही दृढ़ होता है कि मैं उड़ नहीं सकता। हे लीले! यह लीला तो अविदित वेद थी अर्थात् आज्ञानसहित थी और उसका आधिभौतिक भ्रम नहीं निवृत्त हुआ था, परन्तु मेरा वर था इस कारण उसको मृत्यु-मूर्च्छा के अनन्तर यह भास आया कि मैं देवी के वर से चली जाऊँगी। इस वासना की दृढ़ता से वह प्राप्त हुई है। हे लीले। यह जगत् भ्रान्तिमात्र है। जैसे भ्रम से जेवरी में सर्प भासता है वैसे ही आत्मा में भी भ्रम से जगत् भासता है। सब जगत् आत्मा में आभासरूप है। उसका अधिष्ठान आत्मसत्ता अपने ही अज्ञान से दूर भासता है। हे लीले! ज्ञानवान पुरुष सदा