पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२४२

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योगवाशिष्ठ

को किसी की सामर्थ्य नहीं वास्तव में आदि ब्रह्मा भी अकारणरूप है अर्थात् कुछ उपजा नहीं तो जगत् का उपजना मैं कैसे कहूँ? हे लीले! कोई स्वरूप से नहीं उपजा परन्तु चेतना संवेदन के फुरने से जगत्, आकार होके भासता है। उसमें जैसे निश्चय है वैसे ही स्थित है। अग्नि उष्ण ही है; वर्फ शीतल ही है और पृथ्वी स्थितरूप ही है। जैसे उपजे हैं वैसे ही स्थित हैं। हे लीले! जो चेतन है उस पर यह नीति है कि वह उपदेश का अधिकारी है और जो जड़ है उसमें वही जड़ता स्वभाव है। जो आदि चित्संवित् में आकाश का फुरना हुया तो आकाशरूप होकर ही स्थित हुआ। जब काल का स्पन्द फुरता है तब वही चेतन संवित् कालरूप होकर स्थित होता है; जब वायु का फुरना होता है तब वही संवित् वायुरूप होकर स्थित होता है। इसी प्रकार अग्नि, जल, पृथ्वी नानारूप होकर स्थित हुए हैं। स्थूल, सूक्ष्म रूप होकर चेतन संवित् ही स्थित हो रहा है। जैसे स्वप्न में चेतन संवित् ही पर्वत वृक्षरूप होकर स्थित होता है वैसे ही चेतन संवित् जगत् रूप होकर स्थित हुआ है। हे लीले! जैसे आदि नीति ने पदार्थों के सङ्कल्परूप धारे हैं वैसे ही स्थित हैं उसके निवारण करने की किसी की सामर्थ्य नहीं, क्योंकि चेतन का तीव्र अभ्यास हुआ है। जब यही संवित् उलटकर और प्रकार स्पन्द हो तब और ही प्रकार हो; अन्यथा नहीं होता। हे लीले! यह जगत् सत् नहीं। जैसे संकल्पनगर भ्रमसिद्ध है और जैसे स्वप्नपुरुष और ध्याननगर असवरूप होता है वैसे ही यह जगत् भी असत्रूप है और अज्ञान से सत् की नाई भासता है। जैसे स्वप्न सृष्टि के आदि में तन्मात्रसत्ता होती है और उस तन्मात्रसत्ता का आभास किंचित् स्वप्नसृष्टि का कारण होता है वैसे ही यह जाग्रत जगत् के आदि तन्मात्रसत्ता होती है और उससे चिञ्चन अकारण रूप यह जगत् होता है। हे लीले! यह जगत् वास्तव में कुछ उपजा नहीं; असत् ही सत् की नाई होकर भासता है। जैसे स्वप्न की अग्नि स्वप्न में असत् ही सत्रूप हो भासती है वैसे ही अज्ञान से यह असत् जगत् सत् भासता है और जन्म, मृत्यु भोर कमों का फल होता है सो तू श्रवण कर। हे लीले!