पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२४४

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योगवाशिष्ठ।

संगति है; जो शास्त्रों के अनुसार नहीं विचरता और सदा विषयों की ओर धावता और पापाचार करता है। ऐसे पुरुष को शरीर त्यागने में बड़ा कष्ट होता है। हे लीले! जब मनुष्य मृतक होने लगता है तब पदार्थों से आसक्तिबुद्धि जो बँधी थी उससे वियोग होने लगता है और कण्ठ रुक जाता है; नेत्र फट जाते हैं और शरीर की कान्ति ऐसी विरूप हो जाती है जैसे कमल का छल कटा हुमा कुम्हिला जाता है। अङ्ग टूटने लगते हैं और प्राण नाड़ियों से निकलते हैं। जिन अङ्गों से तदात्म सम्बन्ध हुआ था और पदार्थों में बहुत स्नेह था उनसे वियोग होने लगता है इससे बड़ा कष्ट होता है। जैसे किसी को अग्नि के कुण्ड में डालने से कष्ट होता है वैसे ही उसको भी कष्ट होता है। सब पदार्थ भ्रम से भासते हैं पृथ्वी आकाशरूप और आकाश पृथ्वीरूप भासते हैं। निदान महाविपर्यय दशा में प्राप्त होता है और चित्त की चेतनता घटती जाती है। ज्यों-ज्यों चित्त की चेतनता घटती जाती है त्यों-त्यों पदार्थ के ज्ञान से अन्धा हो जाता है। जैसे सायंकाल में सूर्य अस्त होता है तो भ्रान्तिमान नेत्र को दिशा का ज्ञान नहीं रहता वैसे ही इसको पदार्थों का ज्ञान नहीं रहता और कष्ट का अनुभव करता है। जैसे आकाश से गिरता है और पाषाण में पीसा जाता है, जैसे अन्धकूप में गिरता है और कोल्हू में पेरा जाता है, जैसे रथ से गिरता है और गले में फाँसी डालके खींचा जाता है; और जैसे वायु से तरङ्गों में उछलता और बड़ाअग्नि में जलता कष्ट आता है वैसे ही मुर्ख मृत्युकाल में कष्ट आता है। जब पुर्यष्टक का वियोग होता है तब मूर्च्छा से जड़सा हो जाता है और शरीर अखण्डित पड़ा रहता है। लीला ने पूछा, हे देवि! जब जीव मृतक होने लगता है तब इसको मूर्छा कैसे होती है? शरीर तो अखण्डित पड़ा रहता है, कष्ट कैसे पाता है? देवी बोली, हे लीले! जो कुछ जीव ने अहंकारभाव को लेकर कर्म किये हैं वे सब इकट्ठे हो जाते हैं और समय आके प्रकट होते हैं जैसे बोया बीज समय पाके फल देता है वैसे ही उसको कर्मवासनासहित फल आन प्रकट होता है। जब इस प्रकार शरीर छूटने लगता है तब शरीर