पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२४५
उत्पत्ति प्रकरण।

अपनी वासना के अनुसार मनुष्यमार्ग के राह जावेगा। है तो यह चिदाकाशरूप परन्तु अज्ञान के वश इसको दूर स्थान भासेगा और हम भी इसी मार्ग से इसके संकल्प के साथ अपना संकल्प मिलाके जावेंगे। जब तक संकल्प से संकल्प नहीं मिलता तब तक एकत्वभाव नहीं होता। इतना कह वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार देवीजी ने लीला को परम बोध का कारण उपदेश किया कि इतने में राजाजर्जरीभूत होने लगा।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे लीलोपाख्याने संसारभ्रम
वर्णनन्नामाष्टत्रिंशत्तमस्सर्गः॥३८॥

वशिष्ठ जी बोले, हे रामजी! इस प्रकार देवी और लीला देखती थी कि राजा के नेत्र फट गये और शरीर निरस हो गिर पड़ा और श्वास नासिका के मार्ग से निकल गया। तब जैसे रस सहित पत्र भोर कटा हुआ कमल विरस हो जाता है वैसे ही राजा का शरीर निरस हो गया; जो कुछ चित्त की चैतन्यता थी वह जर्जरीभूत हो गई; मृत्यु मूर्च्छरूपी अन्धकूप में जा पड़ा और चेतना और वासनासंयुक्त प्राण आकाश में जा स्थित हुए। प्राणों में जो चेतना थी और चेतना में वासना थी उस चेतना औरवासना सहित प्राण जैसे वायु गन्ध को लेकर स्थित होता है आकाश में जा स्थित हुआ। हे रामजी! राजा की पुर्यष्टक तो जर्जरीभूत हो गई परन्तु दोनों देवियाँ उसको दिव्य दृष्टि से ऐसे देखती थीं जैसे भ्रमरी गन्ध को देखती है। राजा एक मुहूर्त पर्यन्त तो मूर्च्छा में रहा फिर उसको चेतनता फुर आई और अपने साथ शरीर देखने लगा उसने जाना कि मेरे बान्धवों ने मेरी पिण्डक्रिया की है उसको मेरा शरीर भया है और धर्मराज के स्थान को मुझे दूत ले चले हैं। हे रामजी! इस प्रकार अनुभव करता वह धर्मराज के स्थान कोचला और उसके पीछे देवी,जैसे वायु के पीछेगन्ध चली जाती है, चली, जैसे गन्ध के पीछे भ्रमरी जाती है वैसे ही राजा विदूरप धर्मराज के पास पहुंच गया। धर्मराज ने चित्रगुप्त से कहा कि इसके कर्म विचार के कहो। चित्रगुप्त ने कहा, हे भगवन! इसने कोई अपकर्म नहीं किया बल्कि बड़े-बड़े पुण्य किये हैं और भगवती सरस्वती का इसको वर है। इसका शव फूलों से ढ़का हुआ है; उस शरीर में यह भगवती के