पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२८०

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योगवाशिष्ठ।

है। जब वह दृश्य की भोर फुरती है तब जगत् दृश्य होकर भासता है और नाना प्रकार के कार्य कारण हो भासते हैं। रामजी ने फिर पूछा कि हे मुनियों में श्रेष्ठ! जो इस प्रकार है तो देव किसका नाम है, कर्म क्या है और कारण किसको कहते हैं? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! फुरना अफुरना दोनों चिन्मात्रसत्ता के स्वभाव हैं। जैसे फुरना अफुरना दोनों वायु के स्वभाव है परन्तु जब फुरता है तब आकाश में स्पर्श होकर भासता है और जब चलने से रहित होता है तब शान्त हो जाता है, तैसे ही शुद्ध चिन्मात्र में जब चैत्यता का लक्षण, 'अहं अस्मि' अर्थात् 'मैं हूँ' होता है तब उसका नाम 'स्पन्द बुद्धीश्वर' कहते हैं। उससे जगत् दृश्य रूप हो भासता है। उस जगत् दृश्य से रहित होने को निस्पन्दन कहते हैं। चित्त के फुरने से नाना प्रकार जगत् हो भासता है और चित्त के अफर हुए जगत्भ्रम मिट जाता है और नित्य शान्त ब्रह्मपद की प्राप्ति होती है। हे रामजी! जीव कर्म और कारण ये सब चित्तस्पन्दन के नाम हैं और चित्तस्पदन में भिन्न अनुभव नहीं, अनुभव ही चित्तस्पन्दन हुए की नाई भासता है। जीव कर्म और कारण का बीजरूप चित्तस्पन्द ही है। चित्तस्पन्द से दृश्य होकर भासता है, फिर चिदाभास द्वारा देह में अहं प्रतीति होती है और उस देह में स्थित होकर चित्तसंवेदन दृश्य की ओर संसरता है। संसरना दो प्रकार का होता है-एक बड़ा और दूसरा अल्प। कितनों को संसरने में अनेक जन्म व्यतीत होते हैं और कितनों को एक जन्म होता है। आदि हो जो फुरकर स्वरूप में स्थित हैं उनको प्रथम जन्म होता है और जो आदि उपजकर प्रमादी हुए हैं सो फुरकर दृश्य की ओर चले जाते हैं और उनके बहुतेरे जन्म होते हैं। चित्त के फिरने से ऐसा अनुभव करते हैं। पुण्यक्रिया करके स्वर्ग में जाते हैं और पापक्रिया करके नरक में जाते हैं। इस प्रकार दृश्यभ्रम देखते हैं और अज्ञान से बन्धन में रहते हैं। जब बान की प्राप्ति होती तब मोक्ष का अनुभव करते हैं सो बड़ा संसरना है और जो एक ही जन्म पाकर आत्मा की और आते हैं वह अल्प संसरना है। हे रामजी! जैसे स्वर्ण ही भूषणरूप धारण करता है तैसे ही संवेदन ही काष्ठलोष्ट आदिक रूप होके भासता है। इस चित्त का संयोग